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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
एकांगी ही माना जायेगा । कोई भी जिनवचन एकान्त या निरपेक्ष नहीं है । जैन विचारकों ने सदैव ही व्यक्ति को स्वपुरुषार्थ से धनोपार्जन की प्रेरणा दी है । वे यह मानते हैं कि व्यक्ति को केवल अपने पुरुषार्थ से उपार्जित सम्पत्ति के भोग करने का अधिकार है । दूसरों के द्वारा उपार्जित सम्पत्ति के भोग करने का उसे कोई अधि-कार नहीं है । गौतमकुलक में कहा गया है कि पिता के द्वारा उपार्जित लक्ष्मी निश्चय ही पुत्र के लिए बहन होती है और दूसरों की लक्ष्मी परस्त्री के समान होती है । दोनों का ही भोग वर्जित है । अतः स्वयं अपने पुरुषार्थ से धन का उपार्जन करके ही उसका भोग करना न्यायसंगत है ।" जैनाचार्यों ने विभिन्न वर्ण के लोगों को किन-किन साधनों से धनार्जन करना चाहिए, इसका भी निर्देश किया है । ब्राह्मणों को मुख ( विद्या ) से, क्षत्रियों को असि ( रक्षण ) से, वणिकों को वाणिज्य से और कर्मशील व्यक्तियों को शिल्पादि कर्म से धनार्जन करना चाहिए, क्योंकि इन्हीं की साधना में उनकी लक्ष्मी का निवास है । यद्यपि यह सही है कि मोक्ष या निर्वाण की उपलब्धि में जो अर्थ और काम बाधक हैं, वे जैनदृष्टि के अनुसार अनाचरणीय एवं हे हैं । लेकिन जैन दर्शन यह कभी नहीं कहता कि अर्थ और काम पुरुषार्थ एकान्त रूप से हेय हैं । यदि वे एकांत रूप से हेय होते तो आदितीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव स्त्रियों की ६४ और पुरुषों की ७२ कलाओं का विधान कैसे करते ? क्योंकि उनमें अधिकांश कलाएँ अर्थ और काम पुरुषार्थ से सम्बन्धित हैं । 3 न्यायपूर्वक उपार्जित अर्थ और वैवाहिक मर्यादानुकूल काम का जैन विचारणा में समुचित स्थान है । जैन विचारकों ने जिसके त्याग पर बल दिया है वह इन्द्रिय-विषयों का भोग नहीं, भोगों के प्रति आसक्ति या राग-द्वेष की वृत्ति है । जैन मान्यता के अनुसार कर्म विपाक से उपलब्ध भोगों से बचा नहीं जा सकता । इन्द्रियों के सम्मुख उनके विषय उपस्थित होने पर उनके आस्वाद से भी बचना सम्भव नहीं है, जो सम्भव है वह यह कि उनमें राग-द्वेष की वृत्ति न रखी जाये । इतना ही नहीं, जैनाचार्यों ने जीवन के वासनात्मक एवं सौन्दर्यात्मक पक्ष को धर्मोन्मुखी बनाने तथा उनके पारस्परिक विरोध को समाप्त करने का भी प्रयास किया है । उनके अनुसार मोक्षाभिमुख परस्पर अविरोध में रहे हुए सभी पुरुषार्थ आचरणीय हैं । आचार्य हेमचन्द्र कहते हैं कि गृहस्थ उपासक धर्मपुरुषार्थ, अर्थपुरुषार्थ और कामपुरुषार्थ का इस प्रकार आचरण करे कि कोई किसी का बाधक न हो । ४
आचार्य भद्रबाहु ( ८वीं शती) ने तो के पूर्व ही इस बात की उद्घोषणा कर दी चतुष्टय अविरोध भाव से रहते हैं । आचार्य लिखते हैं कि धर्म, अर्थ और काम को भले ही
आचार्य हेमचन्द्र ( ११वीं शताब्दि ) थी कि जैन परम्परा में तो पुरुषार्थबड़े ही स्पष्ट एवं मार्मिक शब्दों में अन्य कोई विचारक परस्पर विरोधी
१. प्राकृत सूक्तिसरोज, ११ ११. २ . वही, ११ ७.
३. देखिए कल्पसूत्र, ( भगवान् ऋषभदेव का वर्णन ). ४. योगशास्त्र १/५२.
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