________________
भारतीय और पाश्चात्य नैतिक मानदण्ड के सिद्धान्त
१५५
योगदान करता है। जैन दृष्टि में इसे हम वीतरागता और सर्वज्ञता की अवस्था कह सकते हैं। __एक अन यआध्यात्मिक मूल्यवादी विचारक डब्ल्यू० आर० साली जैन परम्परा के निकट आकर यह कहते हैं कि नैतिक पूर्णता ईश्वर के समान बनने में है। किन्तु जैन परम्परा इससे भी आगे बढ़कर यह कहती है कि नैतिक पूर्णता परमात्मा बनने में ही है। आत्मा से परमात्मा, जीव से जिन, साधक से सिद्ध , अपूर्ण से पूर्ण की उपलब्धि में ही नैतिक जीवन की सार्थकता है। __अरबन की मूल्यों की क्रम-व्यवस्था भी जैन परम्परा के दृष्टिकोण के निकट ही हैं । जैन एवं अन्य भारतीय दर्शनों में भी अर्थ, काम, धर्म और मोक्ष पुरुषार्थों में यही क्रम स्वीकार किया गया है। अरबन के आर्थिक मूल्य अर्थपुरुषार्थ के, शारीरिक एवं मनोरंजनात्मक मूल्य कामपुरुषार्थ के, साहचर्यात्मक और चारित्रिक मूल्य धर्मपुरुषार्थ के तथा सौन्दर्यात्मक, ज्ञानात्मक और धार्मिक मूल्य मोक्षपुरुषार्थ के तुल्य हैं। १२. भारतीय दर्शनों में जीवन के चार मुल्य
जिस प्रकार पाश्चात्य आचारदर्शन में मूल्यवाद का सिद्धान्त लोकमान्य है उसी प्रकार भारतीय नैतिक चिन्तन में पुरुषार्थ-सिद्धान्त, जोकि जीवनमूल्यों का ही सिद्धान्त है, पर्याप्त लोकप्रिय रहा है। भारतीय विचारकों ने जीवन के चार पुरुषार्थ या मूल्य माने हैं--- . १. अर्थ ( आथिक मूल्य )-जीवन यात्रा के निर्वाह के लिए भोजन, वस्त्र, आवास आदि की आवश्यकता होती है; अतः दैहिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाले इन साधनों को उपलब्ध करना ही अर्थपुरुषार्थ है।
२. काम ( मनोदैहिक मूल्य )-जैविक आवश्यकताओं की पूर्ति के साधन जुटाना अर्थपुरुषार्थ और उन साधनों का उपभोग करना कामपुरुषार्थ है। दूसरे शब्दों में विविध इन्द्रियों के विषयों का भोग कामपुरुषार्थ है।
३. धर्म ( नैतिक मूल्य )-जिन नियमों के द्वारा सामाजिक जीवन या लोकव्यवहार सुचारु रूप से चले, स्व-पर कल्याण हो, और जो व्यक्ति को आध्यात्मिक पूर्णता की दिशा में ले जाये, वह धर्मपुरुषार्थ है ।
४. मोक्ष ( आध्यात्मिक मूल्य )-नाध्यात्मिक शक्तियों का पूर्ण प्रकटीकरण मोक्ष है। १. जैन दृष्टि में पुरुषार्थचतुष्टय
सामान्यतया यह समझा जाता है निवृत्तिप्रधान जैन दर्शन में मोक्ष ही एकमात्र पुरुषार्थ है। धर्मपुरुषार्थ की स्वीकृति उसके मोक्षानुकूल होने में ही है। अर्थ और काम इन दो पुरुषार्थों का उसमें कोई स्थान नहीं है। जैनविचारकों के अनुसार अर्थ अनर्थ का मूल है, सभी काम दुःख उत्पन्न करनेवाले हैं। लेकिन यह विचार १. मरणसमाथि, ६०३. २. उत्तराध्ययन, १३।१६.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org