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________________ भारतीय और पाश्चात्य नैतिक मानदण्ड के सिद्धान्त १४१ मानवतावाद मनुष्य को ही समग्र मूल्यों का मानदण्ड स्वीकार करता है। इस प्रकार उसमें मानवीय जीवन का सर्वाधिक महत्त्व है। यदि हम तुलनात्मक दृष्टि से इस प्रश्न को देखें तो हमें यह स्पष्ट रूप से स्वीकार करना होगा कि भारतीय परम्परा भी मानवीय जीवन के महत्त्व को स्वीकार करती है। जैन आगम उत्तराध्ययन में मानव जीवन को दुर्लभ बताया गया है। आचार्य अमितगति ने स्पष्ट रूप से यह कहा है कि जीवन में मनुष्य का जीवन ही सर्वश्रेष्ठ है । धम्मपद में भगवान् बुद्ध ने भी मनुष्य जन्म को दुर्लभ बताया है। महाभारत में भी कहा गया है कि . रहस्य की बात तो यह है कि मनुष्य से श्रेष्ठ और कुछ नहीं है । गोसामी तुलसीदास भी इस तथ्य को प्रकट करते हैं-"बड़े भाग मानुस तन पावा, सुर दुरलभ सब ग्रन्थन्हि गावा ।" इस प्रकार भारतीय चिन्तन में मनुष्य जीवन के सर्वोच्च मूल्य को स्वीकार किया गया है।' समकालीन मानवतावादी विचार में प्राथमिक मानवीय गुण के प्रश्न को लेकर प्रमुख रूप से तीन विचारधाराएं प्रचलित हैं। जैन आचारदर्शन के साथ इनका तुलनात्मक अध्ययन करने की दृष्टि से इन तीनों विचारधाराओं पर अलगअलग विचार किया जा रहा है। १. आत्मचेतनतावादी दृष्टिकोण और जैन दर्शन आत्मचेतनता या आत्मजाग्रति को ही नैतिकता का आधार और प्राथमिक मानवीय गुण माननेवाले मानवतावादी विचारकों में वारनर फिटे प्रमुख हैं। ये नैतिकता को आत्मचेतना का सहगामी मानते हैं। उनकी दृष्टि में नैतिकता का परिभाषक उस समग्र सामाजिक प्रक्रिया में नहीं है जिसमें मनुष्य जीता है, वरन् आत्मचेतना की उस मानवीय प्रक्रिया में है जो व्यक्ति के जीवन में रही हुई है । वस्तुतः नैतिकता आत्मचेतनामय जीवन जीने में है। उनका कथन है कि जीवन के समग्र मूल्य जीवन की चेतना में निहित हैं । यही एक ऐसादृष्टिकोण है जो जीवन के या अन्य किन्हीं भी मूल्यों को अवधारण कर सकता है। चेतना के नियन्त्रण में जो जीवन है. वही सच्चा जीवन है । नैतिक होने का अर्थ यह जानना है कि हम क्या कर रहे हैं । जाग्रत चेतना नैतिकता है और प्रसुप्त चेतना अनैतिकता है । शुभ एवं उचित कार्य वह नहीं है, जिसमें आत्मविस्मृति होती है, वरन् वह है जिसमें आत्मचेतनता होती है । २ ____ मानवतावादी आचारदर्शन का यह आत्मचेतनतावादी दृष्टिकोण जैन आचारदर्शन के अति निकट है । वारनर फिटे के नैतिक दर्शन की यह मान्यता अति स्पष्ट १. (अ) माणुस्सं सुदुल्लहं ।-महावीर (ब) भवेषु मानुष्यभवः प्रधानम् ।-अमितगति (स) किच्चे मणुस्स पटिलाभो ।-धम्मपद, १८२. (द) गुह्यं ब्रह्म वदिदं को ब्रवीमि न मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किंचित् । -महाभारत, शान्तिपर्व, २९९।२०. २. कण्टेम्परेरि एथिकल थ्योरीज, पृ० १७७-१८०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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