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________________ भूमिका ० सागरमल जैन ने जैन, बौद्ध और गीता के आचार-दर्शन का गम्भीर अध्ययन प्रस्तुत कर धर्मों के तुलनात्मक अध्ययन को एक नवीन सार्थकता प्रदान की है । आज - कल बहुआयामिता तुलनात्मक अध्ययन की दिशा बन चुकी है । अवश्य ही एक सीमा तक उसकी भी उपयोगिता है, किन्तु उसमें विषय की मात्र पल्लवग्राहिता और ज्ञान का सतहीपन बना रहता है । इसके विपरीत डॉ० जैन ने उसे विषय की दृष्टि से नीति एवं आचार केन्द्रित तथा क्षेत्र की दृष्टि से विशेषतः जैनागम, पालि त्रिपिटक और गीता केन्द्रित किया है। इससे उन्होंने अध्ययन के अपने निष्कर्षों को गम्भीर एवं दिशा-निर्देशक बना दिया है । अवश्य ही तुलनात्मक अध्ययन के क्षेत्र में यह ग्रन्थ एक महत्त्वपूर्ण निदर्शन प्रस्तुत करता है । आज की सम्पूर्ण वैश्विक परिस्थिति में शिक्षा का उद्देश्य मानव संस्कृति का अध्ययन ही हो सकता है । इस प्रकार के अध्ययन में भारतीय संस्कृति के अध्ययन का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है । भारतवर्ष में हजारों-हजार वर्षों से अनेकानेक मानव जातियों ने अपनी प्रज्ञा, प्रतिभा, शील-सदाचार, कलाएँ और सौन्दर्य भावनाओं को, जो विविध और व्यापक आयामों में विकसित किया है, वह सम्पूर्ण मानव जाति की धरोहर है । इस प्रसंग में यह कहना भी गलत न होगा कि कालसागर के ज्वारभाटे में हमारे सांस्कृतिक इतिहास के जितने तत्त्व विलीन हो गये, उनके भी विविध अवशेष हमारे वर्तमान विराट् जातीय जीवन के अन्तस्तल में कहीं न कहीं अपने निजी स्वरूप में या कुछ रूपान्तरित होकर हमारी वासनाओं, भावों, प्रवृत्तियों एवं रागात्मक सम्बन्धों के बीच अंगीकृत रहते हुए अर्ध निद्रित या जाग्रत रूप में वर्तमान हैं । इस विराट् संस्कृति का जैसे - जैसे चतुर्दिक् एवं पुंखानुपुंख अध्ययन बढ़ेगा, वैसे-वैसे यह तथ्य स्पष्ट होगा कि भारतीय संस्कृति की वास्तविक अर्हता उसके विश्व-संस्कृति होने में है । इस पूरी गरिमा के बावजूद यह भी एक दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि इतिहास के क्रूर आघातों ने उस गरिमा को वहन करने की क्षमता को हमसे आज छीन ली है । यह सम्भव नहीं है कि विराट् भारतीय संस्कृति की संवेदनशीलता क्षुद्र भारतीय हृदय और अनुदार मन में समा सके । यही कारण है कि हमने सांस्कृतिक अध्ययन के राजमार्ग को भी आज एक पगडंडी बना दी है । फलतः विश्वविद्यालयों और उच्च शिक्षासंस्थानों में भारतीय संस्कृति के नाम पर विद्वानों द्वारा जो कुछ अध्ययन प्रस्तुत किया जा रहा है, उसकी एक घिसी-पिटी लोक है, जो वेद, उपनिषद्, सूत्र, स्मृति, रामायण, महाभारत एवं पुराणों को स्पर्श करती हुई गुजरती है । उनकी दृष्टि में भारतीय संस्कृति के अध्ययन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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