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नैतिक निर्णय का स्वरूप एवं विषय
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जैनागम सूत्रकृतांग से भी इस तथ्य का समर्थन होता है कि बौद्ध परम्परा हेतुवाद की समर्थक है। ग्रन्थकार ने बौद्ध हेतु वाद का उपहासात्मक चित्र प्रस्तुत किया है। सूत्रकार प्रव्रज्या ग्रहण करने को तत्पर आर्द्रककुमार के सम्मुख एक बौद्ध श्रमण के द्वारा ही बौद्ध दृष्टिकोण को निम्नलिखित शब्दों से प्रस्तुत करवाते हैं
"खोल के पिण्ड को मनुष्य जानकर भाले से छेद डाले और उसको आग पर सेकें अथवा कुमार जानकर तूमड़े को ऐसा करे तो हमारे मत के अनुसार प्राणिवध का पाप लगता है। परन्तु खोल या पिण्ड मानकर कोई श्रावक मनुष्य को भाले से छेदकर आग पर सेंके अथवा तूमड़ा मानकर कुमार को ऐसा करे तो हमारे मत के अनुसार उसको प्राणवध का पाप नहीं लगता है ।" ___ यद्यपि यह चित्र एक विरोधी आगम में विकृत रूप में प्रस्तुत किया गया, तथापि मज्झिमनिकाय और सत्रकृतांग के उपर्युक्त सन्दर्भो से यह सिद्ध हो जाता है कि बौद्ध नैतिकता हेतुवाद का समर्थन करती है। उसके अनुसार कर्म की शुभाशुभता का आधार कर्ता का हेतु है, न कि कर्म का परिणाम । यद्यपि सैद्धान्तिक दृष्टि से हेतुवाद का समर्थन करते हुए भी व्यावहारिक स्तर पर बौद्ध दर्शन फलवाद की अवहेलना नहीं करता। विनयपिटक में ऐसे अनेक प्रसंग हैं जहाँ कर्म के हेतु को महत्त्व न देकर मात्र कर्म-परिणाम के लोकनिन्दनीय होने के आधार पर ही उसका आचरण भिक्षुओं के लिए अविहित ठहराया गया है। भगवान् बुद्ध के लिए कर्मपरिणाम का अग्रावलोकन उतना ही महत्वपूर्ण है जितना वह मिल और बेन्थम के लिए है।
जहाँ तक गीता की बात है, वह भी हेतु वाद का समर्थन करती है । गीताकार की दृष्टि में भी कम के नैतिक मूल्यांकन का आधार कर्म का परिणाम न होकरा हेतु ही है। गीता का निष्काम कर्मयोग का सिद्धान्त 'कर्म-परिणाम' की अपेक्ष 'कर्म-हेतु' पर ही अधिक जोर देता है । गीता में अर्जुन के लिए युद्ध के औचित्य के समर्थन का आधार कम-हेतु ही है, कर्म-परिणाम नहीं। गीता में कृष्ण स्पष्ट कहते हैं कि ( हे अर्जुन ) अमुक कर्म का यह फल मिले यह हेतु ( मन में) रखकर कर्म करनेवाला न हो। परिणाम को दृष्टि में रखकर कर्म करना गीताकार को अभिप्रेत नहीं है, क्योंकि कर्म-फल पर तो व्यक्ति का अधिकार ही नहीं है। गीता के अनुसार, फल को दृष्टि में रखकर कर्म करनेवाले निम्न स्तर के हैं। तिलक भी गीता के आचारदर्शन को हेतुवाद का समर्थक मानते हैं। वे लिखते हैं, 'कर्म छोटे-बड़े हों या बराबर हों, उनमें नैतिक दृष्टि से जो भेद हो जाता है वह कर्ता के हेतु के कारण ही होता है। (गीता में ) भगवान् ने अर्जुन से यह सोचने को नहीं कहा कि युद्ध करने से कितने मनुष्यों का कल्याण होगा और कितने लोगों को हानि होगी, बल्कि अर्जुन से भगवान् यही कहते हैं कि इस समय यह विचार गौण है कि तुम्हारे युद्ध करने से भीष्म मरेंगे या द्रोण । मुख्य बात यही है कि तुम किस बुद्धि ( हेतु या उद्देश्य ) से युद्ध करने को तैयार हुए हो । यदि तुम्हारी बुद्धि स्थितप्रज्ञ के समान शुद्ध होगी और उस पवित्र बुद्धि से अपना कर्तव्य करोगे तो फिर १. सूत्रकृतांग, २।६।२६-२९. २. गीता, २।४७. ३. वही, २।४२.
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