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________________ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन इनका नैतिक कर्मों में अपवाद को लेकर कांट से विरोध है। ये विचारक नैतिक जगत् में अपवाद को स्वीकार करते हैं। हाज लिखते हैं, "किसी अकाल के समय जब अनाज क्रय करने पर भी न मिले, न दान में ही प्राप्त हो, तब क्षुधा-तृप्ति के लिए कोई चौर्य-कर्म का आचरण करता है तो वह अनैतिक कर्म क्षम्य ही माना जायेगा।"१ मिल इसे अधिक स्पष्ट करते हए लिखते हैं, "ऐसे समय में चोरी करके जीवन-रक्षा करना केवल क्षम्य ही नहीं है, अपितु कर्तव्य है ।" २ इसी प्रकार सिजविक भी नैतिक जीवन के क्षेत्र में अपवाद को स्थान देते हैं, "यद्यपि सब लोगों को सच बोलना चाहिए, तथापि यह नहीं कहा जा सकता कि जिन राजनीतिज्ञों को अपनी कार्रवाई गुप्त रखनी पड़ती है वे अन्य लोगों के साथ हमेशा सच ही बोला करें।" फलवादी नैतिक विचारक जॉन ड्यूई लिखते हैं, “वास्तव में ऐसे स्थान और समय अर्थात् ऐसे सापेक्ष सम्बन्ध हो सकते हैं जिनमें सामान्य क्षुधाओं की पूर्ति भी जिन्हें साधारणतः भौतिक और ऐन्द्रिक कहा जाता है, आदर्श हो।" कांट नैतिक कर्मों में किसी भी अपवाद को स्थान नहीं देते। उनके बारे में यह घटना प्रसिद्ध है कि एक बार कांट के लिए किसी जहाज से फलों का पिटारा आ. रहा था। रास्ते में जहाज संकट में फंस गया और यात्री भूखों मरने लगे। ऐसी स्थिति में वे फल खा लिये गये। जब कांट के पास यह खबर पहुँची तो कांट ने इस व्यवहार को धिक्कारा और कहा कि उन व्यक्तियों का दूसरे व्यक्ति के माल को बिना अनुमति के काम में लेने की अपेक्षा मर जाना श्रेयस्कर था। नैतिक विचारणा के क्षेत्र में निरपेक्ष नैतिकता की धारणा का विरोध होता रहा है। अमेरिका के फलवादी दार्शनिक टफ्ट का कहना है कि जो नैतिक सिद्धान्त नंतिक प्रत्ययों का अर्थ यथार्थ परिस्थितियों से अलग हटकर करना चाहते हैं वे वस्तुतः शून्य में विचरण करते हैं। स्पेन्सर आदि विकासवादी विचारक, समाजशास्त्रीय विचारक एवं मार्क्स प्रभृति साम्यवादी विचारक. फ्रायड आदि मनोवैज्ञानिक तथा नीतिशास्त्र के संवेगवादी एवं तर्किक भाववादी सिद्धान्त भी कर्मों की नैतिकता को सापेक्ष मानते हैं। यद्यपि नैतिक सापेक्षवाद भी अपनी कठोर व्याख्या में ऐकान्तिक दृष्टिकोण अपना लेता है और नैतिक जीवन के लिए लचीले आदर्शों का निर्माण करने में असफल सिद्ध हो जाता है। उसमें नैतिक आदर्श बिखर जाते हैं, क्योंकि नैतिक आदर्शों के संगठक सामान्य तत्त्व का उसमें अभाव हो जाता है। यही कारण है कि स्पेन्सर एवं डिवी नैतिकता को सापेक्ष स्वीकार करते हुए भी उससे सन्तुष्ट नहीं होते और किसी रूप में निरपेक्ष नीति के तत्त्व की कल्पना कर डालते हैं। १. लिवाइ-अ-थन्, खण्ड २, अध्याय २७, पृ० १३. २. यूटिलिटेरिअनिज्म, अध्याय ५, पृ० ९५. ३. नैतिक जीवन के सिद्धान्त, पृ०५९. ४. रीसेण्ट एथिक्स इन इट्स ब्राडर रिलेशन्स, उद्धृत-कण्टेम्पररि एथिकल थ्योरीज, १६४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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