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________________ 84 साध्वी मोक्षरत्ना श्री १२७८ में रचा गया। अभयदेवसूरि (द्वितीय) के पट्टधर देवभद्रसूरि के शिष्य तिलकसूरि ने “गौतमपृच्छावृत्ति” की रचना की है। उनके पश्चात् प्रभानंदसूरि ने "ऋषभपंचाशिकावृत्ति" और "वीतरागवृत्ति" की रचना की। इसी क्रम में आगे संघतिलकसूरि हुए, जिन्होंने “सम्यक्तव-सप्ततिटीका", "वर्धमान-विद्याकल्प", "षट्दर्शन-समुच्चयवृत्ति" की रचना की। इनके द्वारा रचित ग्रंथों में वीरकल्प, कुमारपाल-चरित्र, शीलतरंगिनीवृत्ति, कन्यानयन महावीर-प्रतिमाकल्प, आदि कृतियाँ भी मिलती हैं। उनकी कृति एवं उनकी गुरुपरम्परा से यह निष्कर्ष निकलता है कि वे भी एक प्रभावक जैनाचार्य थे। दूसरे, जब हम उनके गुरुभ्राताओं और उनके धर्म-परिवार को देखते हैं, तो स्पष्ट रूप से यही प्रतीत होता है कि वे सभी अपने युग के विशिष्ट विद्वान् रहें हैं। प्रस्तुत कृति के अवलोकन से यह ज्ञात होता है कि वर्धमानसूरि संस्कृत-भाषा एवं साहित्य के विशिष्ट जानकार थे। उन्होंने अपनी इस कृति में जगह-जगह आगमों के सन्दर्भ भी प्रस्तुत किए हैं, जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि उनको आगमों का भी विशिष्ट ज्ञान था। वर्धमानसूरि ने आचारदिनकर में न केवल आगमों के ही सन्दर्भ दिए हैं, वरन् अन्य परम्पराओं के ग्रन्थों के भी सन्दर्भ प्रस्तुत किए हैं, जो यह प्रमाणित करते हैं कि उन्होंने जैनेतर-साहित्य का भी अध्ययन किया था। इस प्रकार यह कृति स्वयं ही उनकी विद्वत्ता को उजागर कर देती है। लगभग १२५०० संस्कृत-प्राकृत गाथाओं से निबद्ध यह कृति उनके गंभीर अध्ययन का ही परिणाम है। वर्धमानसूरि का सत्ताकाल वर्धमानसूरि का सम्पूर्ण सत्ताकाल कितना था? इसका निर्णय कर पाना कठिन कार्य है, क्योंकि इस सम्बन्ध में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। इसका अनुमान मात्र इनकी इसी कृति के आधार पर किया जा सकता है। आचारदिनकर १२५०० श्लोकों से निबद्ध एक बृहत्काय कृति है। ऐसा लगता है कि यह कृति उनकी प्रौढ़-अवस्था की रचना होगी। इसके लेखन-कार्य में उनके गुरुभ्राता जयानंदसूरि के शिष्य तेजःकीर्तिमुनि का सदैव सहयोग रहा है। वस्तुतः, इसका संशोधन रचनाकार ने स्वयं ही किया होगा-ऐसा प्रतीत होता है। यह कृति विक्रम संवत् १४६८ में पूर्ण हुई, इस आधार पर उनका सत्ताकाल विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी सिद्ध होता है। यदि इसे उनकी प्रौढ़-अवस्था की कृति माना जाए, तो उनका जन्म विक्रम संवत् १४१० के आस-पास हुआ होगा। इस प्रकार उनका सत्ताकाल विक्रम की पन्द्रहवीं शती के पूर्वार्द्ध से लेकर उसका उत्तरार्द्ध सिद्ध होगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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