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साध्वी मोक्षरत्ना श्री
किया जाता है, जिसका परिणाम यह होता है कि मात्र वह पदधारी हो जाता है। द्वादशांगी की वाचना वगैरह देने से, अर्थात् आगमों का अध्यापन कराने से उसका कोई वास्ता नहीं होता है। इससे श्रमणसंघ में आगमों का ज्ञान क्षीण होता चला जा रहा है। अतःश्रमणों को आगम आदि का सम्यक् ज्ञान प्राप्त हो, इसके लिए किसी योग्य मुनि को उपाध्यायपद पर स्थापित करना आवश्यक है। आचार्यपदस्थापन-विधि
जिस गच्छ में अनेक साधु-साध्वी हों, जिनके अनेक संघाटक अलग-अलग विचरते हो, उनमें अनेक पदवीधरों का होना आवश्यक है, किन्तु कम से कम आचार्य एवं उपाध्याय- इन दो पदवीधरों का होना तो नितांत आवश्यक है। इस संस्कार का प्रयोजन संघ का संचालन करने में निपुण मुनि को आचार्य पद पर स्थापित करना है, क्योंकि योग्य आचार्य ही उस गच्छ या समुदाय के सभी मुनियों को अपने साथ लेकर चल सकता है। वर्तमान में विभिन्न गच्छों में तो क्या, एक ही गच्छ में हम अनेक परम्पराएँ या भेद देखते हैं। उसका मूल कारण आचार्य में संघ को एकजुट रखने की क्षमता का अभाव है, क्योंकि उसका सामर्थ्य इतना नहीं होता कि वह सबको साथ लेकर चल सके। इसका परिणाम यह होता है कि संघ टुकडों मे बँट जाता है तथा कोई उनकी सुनने के लिए तैयार नहीं होता है। सब अपनी इच्छानुसार आचरण करने लगते हैं। अतः संघ को एकता के सूत्र में पिरोने के लिए तथा संघ में अनुशासन स्थापित करने के लिए योग्य मुनि को सर्वानुमति से आचार्य-पद पर स्थापित करना आवश्यक है। मुनि की बारह प्रतिमाओं की उद्वहन-विधि
इस विधि के माध्यम से मन-वचन एवं काया के योग, अर्थात प्रवृत्तियों की सिद्धि की जाती है, अर्थात् उन प्रवृत्तियों को अनुशासित किया जाता है। जब तक मन-वचन-काया के व्यापार अनुशासित नहीं होते हैं, तब तक व्यक्ति परमसुख को प्राप्त नहीं कर सकता है। सामान्यतः यह साधना साधक अपने मन-वचन-काया के संयमन हेतु करता है, जो संघ में परस्पर वैमनस्य की भावनाओं को पैदा ही नहीं होने देती है। आज सामान्यतः जो विवाद होते हैं, वे किसी असंयमित व्यवहार या वचनों के कारण से होते हैं। मुनिजीवन में भी कभी-कभी ऐसे प्रसंग उपस्थित हो जाते हैं, जो आपस में मनमुटाव करा देते हैं। उन सबके निराकरण हेतु तथा मन-वचन एवं काया के संयमन हेतु वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यह संस्कार अत्यन्त उपयोगी है।
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