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________________ 398 साध्वी मोक्षरत्ना श्री ने कुछ कह दिया या अपने कहे अनुसार कोई कार्य न करे, तो हमें तुरन्त गुस्सा आ जाता है और हम वैमनस्य की गाँठ बाँध लेते हैं। यह गाँठ व्यक्ति को समतारूपी स्वभावदशा का बोध कराने में बाधक है। इस गाँठ को समता की साधना से ही गलाया जा सकता है। इस प्रकार वर्तमान परिप्रेक्ष में समता की साधनारूप यह संस्कार भी उपयोगी है। उपस्थापना-विधि इस संस्कार का प्रयोजन साधक को पंचमहाव्रत एवं छठवें रात्रिभोजन-विरमणव्रत का ग्रहण करवाना है। क्षुल्लकविधि में ये व्रत दो करण तीन योग से धारण करवाए जाते हैं, किन्तु इस विधि में साधक को तीन करण एवं तीन योग से इन व्रतों का उच्चारण करवाया जाता है। वर्तमान में मुनि जीवन को ग्रहण करने के पश्चात् इस संस्कार का होना बहुत ही जरूरी है, क्योंकि इस विधि के माध्यम से न केवल साधक को महाव्रतों का आरोपण ही करवाया जाता है, वरन् उसे मुनिजीवन की चर्याओं की आवश्यक जानकारी देने वाले मूलभूत ग्रन्थों, यथा- दशवैकालिक, आवश्यकसूत्र आदि का भी अध्ययन करवाया जाता है। वर्तमान के इस भौतिकवादी युग में भी साधक अपनी चर्या का पालन भली प्रकार से कर सके तथा उसके आचार में कोई शिथिलता न आए, उसके लिए यह संस्कार भी उपयोगी है। योगोद्वहन-विधि योगोद्वहन-संस्कार साधक के मन-वचन एवं काया की प्रवृत्तियों के ऊर्वीकरण हेतु किया जाता है। जब तक साधक का मन भोगवृत्ति से ऊपर नहीं उठता है, तब तक वह सही अर्थों में आत्मचिन्तन की तरफ उत्प्रेरित नहीं हो सकता है। यद्यपि इस संस्कार का मूल प्रयोजन मन, वचन एवं काया की समाधिपूर्ण स्थिति में तप-साधनापूर्वक आगम सिद्धांतों का अध्ययन करवाना है, किन्तु जब हम गहराई में जाते हैं, तो हमें ज्ञात होता है कि यह तो एक आलम्बन मात्र है, किन्तु वास्तव में तो इसका मूल प्रयोजन मन-वचन एवं कायारूपी तीनों योगों को संयमित करके साधक को आत्मोन्मुख करना है। आधुनिक युग में जहाँ साधक अपने यश एवं कीर्ति के लिए प्रयत्नशील है, वहीं साधकों को आत्मसम्मुख बनाने हेतु यह संस्कार संजीवनी औषधि के समान है। वाचनाग्रहण-विधि वाचना प्राप्त करने हेतु, अर्थात् शास्त्र के अध्ययन हेतु गुरु एवं शिष्य को क्या करना चाहिए, इसकी विधि का इसमें उल्लेख किया गया है। वस्तुतः यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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