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________________ 394 साध्वी मोक्षरत्ना श्री नाम व्यक्ति का परिचायक होता है। नाम का प्रभाव व्यक्ति और समाज-दोनों पर होता है। गुणसूचक नाम से जहाँ व्यक्ति में उस गुण को जीवन्त बनाने की भावना होती है, वही वह उससे समाज में आदर भी प्राप्त करता है। अन्नप्राशन-संस्कार __बालक के परिपूर्ण विकास हेतु यह संस्कार भी उपयोगी है। जन्म के कुछ मास बाद जैसे-जैसे बालक के अंगों का विकास होता है, वैसे-वैसे उसकी आहार सम्बन्धी आवश्यकता भी बढ़ने लगती है, अतः उस आवश्यकता की पूर्ति के लिए यह संस्कार किया जाना आवश्यक है। शिशु का आहार कैसा हो? यह जानना भी आवश्यक है, क्योंकि यदि बालक को तेज मिर्च-मसाले वाला या भारी आहार दिया जाए, तो उससे उसका स्वास्थ्य बिगड़ सकता है, अतः उसके स्वास्थ्य के हिसाब से सात्त्विक आहार प्रदान किया जाना आवश्यक है। सात्त्विक आहार न केवल शिशु को स्वस्थता ही प्रदान करता है, वरन् उसमें सात्त्विक गुणों का भी आविर्भाव करता है। कहा भी गया है- “जैसा खाए अन्न, वैसा होए मन, जैसा पिए पानी, वैसी होए वाणी।“ अतःइस आधुनिक परिवेश में आहार विवेक एवं मानवीय गुणों को विकसित करने हेतु भी यह संस्कार उपयोगी है। कर्णवेध-संस्कार कर्णवेध-संस्कार मात्र कर्ण में आभूषण पहनने के उद्देश्य से नहीं किया जाता है, वरन् रोगों की रोकथाम के लिए भी यह संस्कार किया जाता है, क्योंकि एक्यूपंक्चर आदि चिकित्सक भी यह मानते हैं कि कान में छेद कराने से व्यक्ति अनेक सम्भावित रोगों से बच सकता है। उस स्थान पर कर्ण आभूषण पहनने से वह स्थान सतत दबता रहता है, जो शरीर के अन्दर रोगों की सम्भावनाओं को पैदा ही नहीं होने देता है। इस संस्कार से न केवल सम्भावित रोगों की रोकथाम ही होती है, बल्कि व्यक्ति यदि किसी रोग से पीड़ित होता है, तो वह भी शान्त हो जाती है। जैसे कान के अमुक भाग में छेद कराने से व्यक्ति को मिरगी के दौरे आना बंद हो जाते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि बालक को निरोगी बनाने हेतु यह संस्कार आवश्यक है। चूड़ाकरण-संस्कार जन्म के पश्चात् प्रथम बार इस संस्कार के माध्यम से बालक के केशों का अपनयन किया जाता है। पुरातनकाल से ही ऋषियों की यह मान्यता है, कि मनुष्य न जाने कितनी योनियों में भटकता हुआ पाशविक-संस्कार धारण करता हुआ मानव योनि को प्राप्त होता है। केशों को संसाररुपी वृक्ष की जड़ कहा गया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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