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________________ 374 ७६० इस विधि के आलेखन का मुख्य प्रयोजन कर्मों की निर्जरा M में हेतुभूत तप-विधि का वर्णन करना है। जीव कर्म तो कर लेता है, किन्तु उनका क्षय कैसे हो? इसके लिए उसे क्या करना चाहिए- इसका इस विधि में स्पष्टीकरण किया गया है। तप करने से मन दुष्कर्मों की तरफ प्रवृत्त नहीं होता है तथा आत्मा अपने मूल शुद्धस्वरूप को प्राप्त करती है । दूसरा कारण यह भी है कि चार ज्ञान के धनी तीर्थंकर परमात्मा जिनका नियत मोक्ष होने वाला है, वह भी यह जानते हुए कि मेरा मोक्ष निश्चित है, तप का आचरण करते है, इसलिए भी तप का आचरण किया जाना उचित है । कर्मों का नाश करने के लिए आप्त-पुरुषों ने जिस आचार का पालन किया है, उसका सर्वजीव भी आचरण करें- इस उद्देश्य से यहाँ तप - विधि का कथन किया गया है। साध्वी मोक्षरत्ना श्री सामान्यतः तप करने हेतु किसी काल का प्रतिबंध नहीं है। कोई भी तप कभी भी किया जा सकता है, किन्तु दीर्घावधि वाले तप निर्विघ्न रूप से पूर्ण हो, इस अपेक्षा से भविक जन शुभमुहूर्त में तप का प्रारम्भ करते हैं। आचारदिनकर में भी कहा गया है७६१ कि प्रतिष्ठा और दीक्षा में जो काल त्याज्य बताया गया है, उस काल में छः मासी तप, वर्षी तप तथा एक मास से अधिक समय वाले तप प्रारम्भ नही करना चाहिए। प्रथमविहार, तप, नंदी और आलोचना में मृदु, ध्रुव, चर, क्षिप्र संज्ञा वाले नक्षत्र तथा मंगल एवं शनिवार को छोड़कर शेष सभी वार शुभ माने गए है। कुछ तप ऐसे भी हैं, जो तिथि विशेष से सम्बन्ध रखते हैं, अतः उन तपों का प्रारम्भ उन तिथियों से किया जाना चाहिए। दिगम्बर एवं वैदिक - परम्परा में हमें तप के प्रारम्भ के सम्बन्ध में कोई सूचना नहीं मिलती है। हाँ, जो तप जिन तिथियों से सम्बन्धित हैं, उन-उन तिथियों में वह तप करने के उल्लेख अवश्य मिलते है। संस्कार का कर्त्ता - यद्यपि तप का वहन कर्त्ता स्वयं ही करता है, किन्तु कुछ तपों की विधि निर्ग्रन्थ मुनियों द्वारा करवाई जाती है, जैसे- उपधानतप का वहन तो श्रावक करता है, किन्तु उसकी क्रिया निर्ग्रन्थमुनि द्वारा करवाई जाती है। इसी प्रकार योगोद्वहनतप का वहन योगवाही शिष्य द्वारा ही किया जाता है, तथापि उसकी क्रिया आचार्य आदि द्वारा करवाई जाती है। दिगम्बर - परम्परा के ग्रन्थों में हमें इस 1960 आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, पृ. ३६३, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण : १६२२. आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय-उनचालीसवाँ, पृ.- ३३५, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण : ge, १६२२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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