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________________ वर्षमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन 353 नरक-यातना सहनी पड़ती है इत्यादि, किन्तु वहाँ हमें प्रायश्चित्त ग्रहण करने योग्य साधक के लक्षणों का उल्लेख नहीं मिलता है। उपर्युक्त चर्चा करने के पश्चात् वर्धमानसूरि ने प्रायश्चित्त ग्रहण करने की विधि का वर्णन किया है। वर्धमानसूरि के अनुसार २५ शुभ मुहूर्त में गुरु और शिष्य के चंद्रबल में आलोचनाग्राही साधु को सर्वचैत्यों में चैत्यवंदन, सर्व साधुओं का वन्दन तथा आयम्बिल-तप करना चाहिए। यदि आलोचनाग्राही गृहस्थ है, तो उसे सर्वचैत्यों में बृहत्स्नात्रविधि से पूजन, साधर्मिकवात्सल्य, संघपूजन, साधुओं को वस्त्र, अन्नपात्र आदि का दान, ज्ञानपूजा, मण्डलपूजा करनी चाहिए। तत्पश्चात् शुभवेला के आने पर प्रायश्चित्त ग्रहण करने वाला साधु या श्रावक गुरु को प्रदक्षिणा देकर गमनागमन में लगे दोषों की आलोचना करे और देववन्दन करे। फिर मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना एवं सर्व साधुओं को द्वादशावतवन्दन करके गुरु के आगे मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करें। इसके बाद खमासमणासूत्रपूर्वक प्रायश्चित्त-विधि की आज्ञा लेकर प्रायश्चित्त द्वारा शुद्धि करने हेतु कायोत्सर्ग करे, कायोत्सर्ग में साधक चतुर्विंशतिस्तव का चिन्तन करे तथा कायोत्सर्ग पूर्ण करके पुनः प्रकट रूप से चतुर्विंशतिस्तव बोले। तत्पश्चात् गुरु के समक्ष तीन बार परमेष्ठीमंत्र एवं आलोचना की गाथा बोले। फिर विनयपूर्वक आसन में गुरु के समक्ष बैठकर निष्कपट भाव से ज्ञात दुष्कृतों की आलोचना करे। गुरु भी समभावपूर्वक शिष्य के दुष्कृत्यों को सुनकर उसे परिस्थिति के अनुसार उसके योग्य आलोचना आदि दसविध प्रायश्चित्त को करने का आदेश दे। दिगम्बर-परम्परा में इस प्रकार की प्रायश्चित्त-विधि का उल्लेख देखने को नहीं मिला, यद्यपि वहाँ भी गुरु के समक्ष ही प्रायश्चित्त करने के उल्लेख मिलते हैं, किन्तु खमासमणासूत्रपूर्वक गुरु की आज्ञा प्राप्त करना, प्रायश्चित्त-विधि हेतु कायोत्सर्ग करना, आदि क्रियाओं का उल्लेख हमें वहाँ देखने को नहीं मिला। वैदिक-परम्परा में भी उक्त विधि का उल्लेख नहीं मिलता है और यह स्वाभाविक है। - प्रायश्चित्त-विधि का उल्लेख करने के बाद वर्धमानसूरि ने दसविध प्रायश्चित्तौ २६- (१) आलोचना (२) प्रतिक्रमण (३) उभय (४) विवेक (५) कायोत्सर्ग (६) तपयोग्य (७) छेदयोग्य (6) मूलयोग्य (E) अनवस्थाप्ययोग्य और (१०) पारांचिकयोग्य का उल्लेख करते हुए किन-किन दोषों ७४ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय- सैंतीसवाँ, पृ.- २४११, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण : १६२२. ७२६ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय- सैंतीसवाँ, पृ.- २४१, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण : १६२२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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