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________________ 350 साध्वी मोक्षरला श्री के योग्य देश, काल आदि का विचार किया गया है। अन्त में प्रायश्चित्त न करने से क्या हानि और क्या लाभ होते हैं, इसकी चर्चा की गई है। तत्पश्चात् वर्धमानसूरि ने प्रायश्चित्त ग्रहण करने की विधि का उल्लेख किया है। प्रायश्चित्त के मुहूर्त के सन्दर्भ में वर्धमानसूरि का कथन है कि मृदु, ध्रुव, चर और क्षिप्र नक्षत्रों में तथा मंगलवार एवं शुक्रवार को प्रायश्चित्त ग्रहण नहीं करना चाहिए। शेष नक्षत्रों और वारों में प्रायश्चित्तदायक तथा प्रायश्चित्त ग्रहण करने वाले का चंद्रबल देखकर प्रायश्चित्त-विधि करनी चाहिए। इस विधि के अन्तर्गत सर्वप्रथम सर्व चैत्यों में चैत्यवंदन और सभी साधुओं को वन्दन करके प्रायश्चित्त ग्रहण करने वाला मुनि आयम्बिल तप करे। यदि प्रायश्चित्त ग्रहण करने वाला गृहस्थ हो, तो उसे सबसे पहले बृहत्स्नात्रविधि से परमात्मा की महापूजा और साधर्मिकवात्सल्य करना चाहिए। साथ ही साधुओं को चतुर्विध आहार, वस्त्र और ज्ञान के उपकरणों का दान करना चाहिए। फिर शुभलग्न में प्रायश्चित्त ग्रहण करने वाला गीतार्थ गुरु की प्रदक्षिणा करके ईर्यापथिकी की आलोचना करे तथा चार स्तुतियों से चैत्यवंदन करे। तदनन्तर मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करके सभी मुनियों को द्वादशावत वंदन करे। पुनः गुरु के सम्मुख मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना कर और उन्हें वन्दन कर आत्मशुद्धि के हेतु आलोचना करने की आज्ञा मांगे। गुरु की आज्ञा प्राप्त होने पर आत्मशुद्धि के निमित्त कायोत्सर्ग करे। कायोत्सर्ग पूर्ण करके विनयपूर्वक मुख को मुखवस्त्रिका से आच्छादित कर तथा हाथ जोड़कर जो भी दृष्कृत किए हों, तथा जिनकी स्मृति हो, उन सब दृष्कृत्यों का गीतार्थ गुरु के समक्ष कथन करे, कुछ भी छिपाएं नहीं। गीतार्थ गुरु उन दृष्कृत्यों को सुनकर देश, काल और परिस्थिति के अनुसार जिस प्रकार के प्रायश्चित्त के वह योग्य हो, वह प्रायश्चित्त प्रदान करे- यह प्रायश्चित्त ग्रहण करने की संक्षिप्त विधि है। इसके पश्चात आचारदिनकर में दस प्रकार के प्रायश्चित्तों तथा कौनसा अपराध किस प्रायश्चित्त के योग्य होता है- इसकी बहुत ही विस्तृत चर्चा की है। मूलग्रन्थ में यह विषय अतिविस्तार के साथ वर्णित है। विस्तारभय से उस सबकी चर्चा करना यहाँ संभव नहीं है। जिन्हें इस सम्बन्ध में विस्तार से जानने की इच्छा हो, वे मेरे द्वारा अनुदित आचारदिनकर के तृतीय भाग का सैंतीसवाँ उदय देख सकते हैं। प्रायश्चित्त सम्बन्धी यह विस्तृत विवेचन व्यवहारसूत्र, यतिजीतकल्प और जीतकल्प भाष्य के आधार पर किया गया है। जीतकल्प आदि ये भाष्यग्रन्थ केवलमुनियों की आचार-व्याख्या से सम्बन्धित प्रायश्चित्तों का ही कथन करते हैं, किन्तु आचारदिनकर में न केवल मुनियों की अपितु श्रावकों की प्रायश्चित्त-विधि का भी उल्लेख है। श्रावकों की प्रायश्चित्त-विधि के सन्दर्भ में आचारदिनकर में दो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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