SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 341
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन 337 देना चाहिए, इसका उल्लेख अवश्य मिलता है, जैसे६६१- सर्य के लिए बाँस से बने पात्र में चावल, कपूर, मोती, श्वेतवसन, घृतपूर्णघड़ा बैल..........इत्यादि। आचारदिनकर की अपेक्षा वैदिक-परम्परा के ग्रन्थों में इस विषय की चर्चा विस्तार से की गई है। . वर्धमानसूरि ने प्रकारान्तर से की जाने वाली अन्य नवग्रह शांति की पूजाविधि का भी उल्लेख किया है। इसके अतिरिक्त ग्रहशान्ति हेतु लोकप्रचलित स्नानविधि का भी उन्होंने आचारदिनकर में उल्लेख किया हैं तथा अन्त में कौनसे ग्रह की शान्ति के लिए किस रत्न या धातु को धारण करें- इसका इसमें उल्लेख किया गया है।६६२ दिगम्बर एवं वैदिक-परम्परा के प्राचीनतम ग्रन्थों में हमें यह उल्लेख नहीं मिलता है कि किस ग्रह की शान्ति के लिए कौनसे रत्न या धातु को धारण करना चाहिए। इस प्रकार हम देखते हैं कि तीनों ही परम्पराओं में शान्तिककर्म सम्बन्धी विधानों में आंशिक समानता एवं आंशिक भिन्नता दृष्टिगत होती है। जहाँ तक मेरा विचार है, आचारदिनकर में वर्णित शान्तिककर्म-विधान वैदिक-परम्परा के विधि-विधानों से प्रभावित रहा है, क्योंकि इस प्रकरण में कुछ ऐसी वस्तुओं का भी उल्लेख है, जो आगमसम्मत नहीं हैं और जिसे जैन-परम्परा स्वीकार नहीं करती उपसंहार शान्तिक कर्म करने की क्या आवश्यकता है? जब हम इस प्रश्न पर विचार करते हैं, तो हमारे सामने अनेक तथ्य उभरकर आते है। सामान्यतया निर्विघ्न फल की प्राप्ति एवं उत्पातों के अशुभ प्रभावों को दूर करने के लिए शांतिकर्म आवश्यक है, क्योंकि व्यक्ति के जीवन पर ग्रहों, नक्षत्रों एवं राशियों का बहुत प्रभाव पड़ता है। कब, कौनसा ग्रह किस पर कैसा प्रभाव डालता है, यह व्यक्ति की जन्म के समय के ग्रहों की स्थिति एवं गोचर के ग्रहों की स्थिति पर निर्भर करता है। इन दोनों स्थितियों में कभी कोई ग्रह व्यक्ति पर अशुभ प्रभाव डालता है, तो कोई ग्रह व्यक्ति पर शुभ प्रभाव डालता है। व्यक्ति के जीवन पर जो ग्रह अशुभ प्रभाव डालते है, सामान्यतया उन्हीं की शांति के लिए शांतिकविधान किया जाता है, किन्तु प्रत्येक व्यक्ति तो यह जान नहीं सकता है कि कौनसे ग्रह ६६" देखेः धर्मशास्त्र का इतिहास (चतुर्थ भाग), डॉ. पांडुरंग वामन काणे, अध्याय- २१, पृ.- ३५६, उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ, प्रथम संस्करण १६७३. ६६२ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय-चौंतीसवाँ, पृ.-३३४-३३५, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२. Jain Education International . For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy