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________________ 280 साध्वी मोक्षरत्ना श्री भिक्षुसंघ में उपसम्पदा प्राप्त करने के लिए विज्ञप्ति तथा तीन बार अनुश्रावण की विधि की जाती थी तथा अन्त में धारणा द्वारा संघ की मौन सहमति से उसकी स्वीकृति की सूचना मिलती थी। जैनसाध्वी संघ में स्त्री को दीक्षा ग्रहण करने हेतु इतनी लम्बी प्रक्रिया से नहीं गुजरना पड़ता था। क्षुल्लिका या सामायिकचारित्र के रूप में प्रशिक्षण ग्रहण करने के बाद एक निश्चित कालावधि के पश्चात् उसे प्रव्रज्या प्रदान कर दी जाती थी। बौद्ध-भिक्षुणीसंघ में उपसम्पदा प्रदान करने के पश्चात् भिक्षुणी को तीन निश्रय तथा आठ अकरणीय कर्म बतलाए जाते थे। जैनसाध्वियों के सन्दर्भ में इस प्रकार के निश्रय तथा अकरणीय कर्मों का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता है, यद्यपि इनका पालन जैन-भिक्षुणीसंघ में भी होता था।५५ इस प्रकार जैन तथा बौद्ध-परम्परा में स्त्रीदीक्षा की विधि में कुछ समानताएँ एवं कुछ असमानताएँ दृष्टिगत होती हैं। उपसंहार - वर्धमानसूरि द्वारा वर्णित यह संस्कार स्त्रियों को दीक्षा प्रदान करने हेतु है। स्त्रियों को दीक्षा प्रदान करते समय निम्न दोषों का परिहार करना आवश्यक है _५६६ (१) बाल (२) वृद्ध (३) नपुंसक (४) स्त्रीक्लीब (५) जड्ड (६) व्याधिग्रस्त (७) स्तेन (८) राजापकारी (६) उन्मत्त (१०) अदर्शन (११) दास (१२) दुष्ट (१३) मूढ़ (१४) जुंगित (१५) अवबद्धक (१६) भृत्य (१७) ऋणात (१८) शैक्षनिस्फेटिका (१६) गर्भिणी एवं (२०) बालवत्सा।। इन दोषों से रहित स्त्री ही गृहीत व्रत का सम्यक् परिपालन कर सकती है, क्योंकि यदि स्त्री बालिका होगी, तो अपने चंचल स्वभाववश देशविरति या सर्वविरति ग्रहण नहीं कर सकेगी, वृद्ध होगी, तो ज्येष्ठ के प्रति भी विनय नहीं कर पाएगी, नपुंसक होगी, तो विषयभोग के आवेगों की तीव्रता के कारण गृहीत व्रतों का सम्यक् पालन नहीं कर पाएगी, इत्यादि। इन सब बातों का विचार करके ही स्त्री को दीक्षा दी जानी चाहिए, कदाचित् दीक्षा प्रदान करते समय इन दोषों का ध्यान नहीं रखा जाए, तो उससे साध्वी-समुदाय का अपयश तो होता ही है, उसके साथ ही जिनशासन की भी निन्दा होती है। यदि कोई आचार्य बिना किसी परीक्षण ५६५जैन और बौद्ध भिक्षुणी संघ, डॉ. अरुणप्रतापसिंह, अध्याय-१, पृ.-३१, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, प्रथम संस्करण १९८३. १६ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत, उदय-उन्नीसवाँ, पृ.-७४, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, प्रथम संस्करण १६२२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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