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________________ वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन इस प्रकार श्वेताम्बर - परम्परा के ग्रन्थों में प्रतिमावहन सम्बन्धी विधि-विधान में कहीं-कहीं आंशिक भिन्नता दिखाई देती है । उपसंहार प्रत्येक जीव का यही लक्ष्य रहता है कि समस्त कर्मों का क्षय करके परमात्म दशा का साक्षात्कार करे एवं मोक्ष के परमसुख की प्राप्ति करे । इस लक्ष्य को केन्द्र में रखकर ही साधक अपनी साधना करता है, किन्तु मन में यह संशय हो सकता है कि कर्मव्याधि की प्रव्रज्यारूपी चिकित्सा को भाव से स्वीकार करने वाले साधु को इन प्रतिमाओं के वहन का निर्देश क्यों दिया गया है? साधु को इन प्रतिमाओं के वहन की क्या आवश्यकता है। इन प्रश्नों का समाधान करते हुए पंचाशकप्रकरण में कहा गया है -५५५ “तं चावत्थंतर मिह जायइ तहा संकिलिट्ठकम्माओ । पत्थुयनिवाहिदट्ठाइ जह तहा सम्ममवसेयं । । 275 अहिगयसुंदर भावस्स विग्धजणगंति संकिलिट्ठ चा तह चेव तं खविज्जइ एत्तोच्चिय गम्मए एयं । । अर्थात् जिस प्रकार लूतारोगग्रस्त राजा की सर्पदंश आदि के कारण अन्य भी विकृत अवस्थाएँ सम्भव होती हैं, उसी प्रकार प्रव्रजित साधु की साधना में अशुभ कर्मों के उदय से अन्य विकृतियाँ आना सम्भव है, जो प्रतिमा कल्परूप विशिष्ट चिकित्सा से ही ठीक होती है। पूर्वकर्मजन्य विकृतियाँ सामान्य प्रव्रज्या में विघ्नकारक और संक्लिष्ट भावों का कारण होती हैं, इसलिए प्रतिमाकल्परूप शुभ भावों में रमण करके ही उन अशुभ कर्मों को दूर किया जा सकता है। इस प्रकार पूर्व कर्मों का नाश करने हेतु प्रतिमाकल्प का वहन करना आवश्यक है। प्रतिमाओं का वहन सम्यक् रूप से करने पर साधना में एक ऐसी पराकाष्ठा आ जाती है कि जब साधक अपने सम्पूर्ण कर्मों का क्षय करके लोकालोक प्रकाशक केवलज्ञान को प्राप्त कर लेता है। ५५५ पंचाशकप्रकरण, अनु.- दीनानाथ शर्मा, प्रकरण- अठारहवाँ, पृ. ३२८, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी, प्रथम संस्करण : १६६७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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