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साध्वी मोक्षरत्ना श्री है। दिगम्बर-परम्परा में भी गणोपग्रहण की क्रिया (आचार्य) द्वारा ही करवाने का निर्देश मिलता है।५२०
आचारदिनकर में वर्धमानसूरि ने इसकी निम्न विधि प्रस्तुत की हैवाचनानुज्ञा-विधि
वर्धमानसूरि ने इस विधि में सर्वप्रथम वाचनाचार्य पद के योग्य मुनि के लक्षणों का निरूपण किया है। तत्पश्चात् यह बताया गया है कि आचार्य-पदस्थापना के योग्य मुहूर्त, शुभ तिथि, वार, नक्षत्र, एवं लग्न में विशिष्ट वेश को धारण कर गुरु वाचनाचार्य पद के योग्य शिष्य को जिसने लोच एवं आयम्बिल किया हुआ है, अपने पास में बुलाए। तत्पश्चात् समवसरण की रचना करवाकर शिष्य से तीन प्रदक्षिणा दिलवाए। तदनन्तर वाचना की अनुज्ञा हेतु नंदीविधि की क्रिया का क्रम चलता है। नंदीक्रिया के बाद गुरु शिष्य के सिर पर वासक्षेप करते है। तदनन्तर गुरु वर्धमानविद्या द्वारा वासक्षेप चूर्ण को अभिमंत्रित करके साधु-साध्वियों को दे। "अमुक मुनि वाचनाचार्य पद पर नियुक्त किए गए"- इस घोषणा के साथ सभी वाचनाचार्य के सिर पर वासक्षेप करें। तत्पश्चात् वाचनाचार्य समवसरण एवं गुरु की तीन प्रदक्षिणा करे। इसके बाद वाचनाचार्य कम्बल पर बैठकर देशना दे। तत्पश्चात् संघ के समक्ष गुरु वाचनाचार्य द्वारा करणीय कार्यों की अनुज्ञा प्रदान करते है। मंत्र की आराधना हेतु वर्धमान विद्यापट देते है। वाचनाचार्य विनयपूर्वक उस पट को ग्रहण करे तथा ज्येष्ठानुक्रम से साधुओं को वन्दन करे।
वाचनाचार्य-पदस्थापन-विधि के अन्तर्गत ही गणानुज्ञा (गणिपद प्रदान करने) की विधि भी निर्दिष्ट की गई है। इससे सम्बन्धित विस्तृत जानकारी हेतु मेरे द्वारा अनुदित आचारदिनकर के द्वितीय भाग के तेईसवें उदय के अनुवाद को देखा जा सकता है। तुलनात्मक विवेचन
वर्धमानसूरि ने वाचनाचार्य एवं गणनायक के जिन कार्यकलापों का निर्देश दिया है, प्रायः उन्हीं कार्यकलापों का निर्देश आदिपुराण में वर्णित गणोपग्रहणक्रिया में किया गया है, इसलिए हम इस संस्कार की तुलना गणोपग्रहणक्रिया से कर सकते है। वर्धमानसूरि ने आचारदिनकर में इस संस्कार की विधि का विस्तार से उल्लेख किया है, किन्तु दिगम्बर-परम्परा के पुराण आदि ग्रन्थों में हमें इस संस्कार
५२°आदिपुराण, अनु. डॉ. पन्नालालजी जैन, पर्व- अडतीसवाँ, पृ.- २५४-२५५, भारतीय ज्ञानपीठ, सातवाँ
संस्करण २०००.
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