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________________ 242 साध्वी मोक्षरत्ना श्री करके वैराग्य भावना से पूरित होकर सभी से क्षमापना करके गुरु के समक्ष बैठे और गुरु से तथा संघ से दीक्षा की याचना करे। उनकी आज्ञा मिलने पर सौभाग्यवती स्त्री स्वस्तिक के ऊपर श्वेतवस्त्र बिछाए। उस पर दीक्षार्थी पूर्वाभिमुख हो पर्यंकासन में बैठे और गुरु उत्तराभिमुख होकर संघ एवं समुदाय की अनुमतिपूर्वक केशलोच करें। केशलोच करते समय आचार्य सिद्धभक्ति एवं योगभक्ति करे। तत्पश्चात् गंधोदक आदि को मंत्र से मंत्रित करके तीन बार उसके सिर पर निक्षिप्त करे। फिर उसके मस्तक को बाएँ हाथ से स्पर्शित करे। तदनन्तर दधि, अक्षत, गोबर एवं दूर्वा के कोमल पत्ते उसके मस्तक पर वर्धमानमंत्र से निक्षिप्त करे। फिर मंत्रोच्चार करते हुए गुरु अपने हाथों से पाँच बार केशों का लोच करे। उसके पश्चात् कोई भी सम्पूर्ण लोच की क्रिया करे। लोचनिष्ठापन क्रिया के पूर्व आचार्य सिद्धभक्ति करे। तदनन्तर दीक्षार्थी सिर का प्रक्षालय करके गुरुभक्ति करे और वस्त्र आभरण, यज्ञोपवीत आदि का परित्याग कर दीक्षा की याचना करे। तत्पश्चात् गुरु उसके सिर पर श्रीं लिखे और अ.सि.आ.उ.सा. मंत्र का १०८ बार जप करे। उसके पश्चात् गुरु उसके हाथों में केशर, कपूर और चन्दन से श्री लिखे। फिर पूर्व में ३, दक्षिण में २४, पश्चिम में ५ और उत्तर में २ अंक लिखकर रत्नत्रय को नमस्कार करते हुए उसकी अंजलि चावलों से पूरी भर दे। उसके ऊपर नारियल एवं सुपारी रखकर सिद्धभक्ति, चारित्र-योग भक्ति का पाठ कर उसे व्रत प्रदान करे। व्रत आदि प्रदान करते हुए मुनि के अट्ठाईस मूल गुणों का आरोपण करे। तत्सम्बन्धी गाथा को तीन बार उच्चरित करके शान्ति भक्ति करे तथा अंजलि में संचित चावल आदि पात्र में डलवाए। तत्पश्चात् सोलह मंत्रों से नूतन मुनि के षोडश संस्कार करे। अन्त में षड्जीवनिकाय के रक्षणार्थ, पिच्छिका, द्वादशांगसूत्र के अध्ययनार्थ ज्ञानोपकरण एवं ब्राह्य तथा अभ्यन्तर शुद्धि हेतु शौचोपकरण प्रदान करे। उसके बाद समाधिभक्ति का पाठ करे तथा नवदीक्षित मुनि, गुरु एवं अन्य मुनियों को प्रमाण करे। जब तक व्रतारोपण नहीं होता हैं, तब तक अन्य मुनि उसे प्रतिवंदना नहीं करते है। उसके बाद उसी पक्ष में या दूसरे पक्ष में शुभ मुहूर्त में महाव्रतारोपण की क्रिया की जाती है। इसमें रत्नत्रय की पूजा करके पाक्षिक प्रतिक्रमण का अध्ययन किया जाता है। पाक्षिक नियम ग्रहण करते समय व्रतसमिति आदि का पाठ करके महाव्रत प्रदान किए जाते हैं और किसी एक तप का नियम दिया जाता है। दीक्षाप्रदाता एवं श्रावकादि भी एक तप का नियम ग्रहण करते हैं और इस क्रिया के बाद ही अन्य मुनि नवदीक्षित को प्रतिवंदना करते हैं। वर्धमानसूरि के अनुसार उपस्थापना की क्रिया करते समय आचार्य शिष्य को समवसरण के समक्ष नंदीक्रिया करवाकर तीन बार नंदीसूत्र का पाठ सुनाते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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