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________________ 202 साध्वी मोक्षरत्ना श्री समवसरण की तीन प्रदक्षिणा दे। तदनन्तर गुरु एवं श्रावक - दोनों ईर्यापथिकी की क्रिया करें। तत्पश्चात् श्रावक किस प्रकार से विधिपूर्वक नंदी क्रिया करे, इसका उल्लेख किया गया है। तदनन्तर देववंदन तथा श्रुतदेवता आदि के कायोत्सर्ग तथा स्तुति का क्रम बताया गया है। देववंदन के मध्य बोले जाने वाले अर्हणादिस्तोत्र का भी उल्लेख मूलग्रन्थ में किया गया है। चैत्यवंदन के बाद श्रावक अनुज्ञापूर्वक सम्यक्त्व-सामायिक आदि के लिए कायोत्सर्ग करता है तथा मुखवस्त्रिका की प्रतिलेखना करता है। इसके बाद श्रावक द्वारा सम्यक्त्वादि त्रिक ग्रहण करने की इच्छा व्यक्त करने पर यतिगुरु विधिपूर्वक सम्यक्त्वदंडक का तीन बार उच्चारण करवाते हैं। तत्पश्चात् गुरु श्रावक के मस्तक पर वासक्षेप करते है। तदनन्तर गुरु सूरिमंत्र से अक्षत एवं वासक्षेप को अभिमंत्रित करते हैं। इसके बाद श्रावक सम्यक्त्व त्रय के स्थिरीकरण हेतु कायोत्सर्ग करता है तथा चौथी स्तुति को छोड़कर शक्रस्तव द्वारा चैत्यवंदन करता है। तत्पश्चात् गुरु श्रावक को सामने बैठाकर नियम ग्रहण करवाते हैं तथा उसे सम्यक्त्व के स्वरूप का उपदेश देते हैं। उस दिन श्रावक आयम्बिल, एकासना आदि व्रत करे। यह निर्देश देकर वर्धमानसूरि ने साधुओं को दान देने, मण्डलीपूजा करने, चतुर्विध संघ को भोजन कराने तथा संघपूजा करने का भी उल्लेख किया है। यह सम्यक्त्व-सामायिक, अर्थात सम्यक्त्व-धारण की विधि है। तदनन्तर मूलग्रन्थ में देशविरति-सामायिक-आरोपण की विधि का उल्लेख हुआ है। इसमें श्रावक को बारह व्रतों का ग्रहण करवाया जाता है। इसी प्रकरण में परिग्रह-परिमाण सम्बन्धी टिप्पणक लिखने की विधि का भी उल्लेख हुआ है। तत्पश्चात् मूलग्रन्थ में छ:मासिक सामायिक-व्रत ग्रहण करने की विधि का विवरण प्रस्तुत किया गया है। तदनन्तर मूलग्रन्थ में श्रावक प्रतिमाओं के नामोल्लेख करते हुए उनकी उद्वहन की विधि बताई गई है। इस प्रकरण में यह बताया गया है कि जो प्रतिमा जीवनपर्यन्त के लिए ग्रहण की जाती है, उसमें काल आदि का नियम नहीं होता है, शेष में होता है। प्रतिमाओं के वहन में भी नंदीक्रिया, चैत्यवंदन, खमासमणा, वासक्षेप आदि की विधि की जाती है। प्रथमदर्शन-प्रतिमा में दर्शन-प्रतिमा सम्बन्धी दंडक का उच्चारण किया जाता है। इसके साथ ही अन्य-अन्य प्रतिमाओं में उनसे सम्बन्धित प्रतिज्ञापाठ में उल्लेखित व्रतचर्या का पालन किया जाता है। तत्पश्चात् मूलग्रन्थ में श्रुतसामायिक-आरोपण की विधि बताई गई है। साधुओं को योगोद्वहन-विधि से श्रुत-आरोपण हेतु आगमपाठों द्वारा अध्ययन-अध्यापन द्वारा श्रुत-सामायिक का आरोपण कराते हैं तथा गृहस्थों को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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