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________________ 200 साध्वी मोक्षरत्ना श्री सही दिशा-निर्देश देता है एवं उसे अधःपतन से बचाता है। वह अर्थ और काम-पुरुषार्थों का नियामक भी है एवं मोक्ष-पुरुषार्थ का साधन है। व्रतारोपण-संस्कार का अर्थ वस्तुतः धर्म या नीतिपूर्वक जीवन जीने की प्रतिज्ञा करना है। इस संस्कार के मूलभूत प्रयोजन के सन्दर्भ में जब हम विचार करते हैं, तो यह पाते हैं कि व्यक्ति के जीवन में धर्म का परिपालन अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि इसके अभाव में व्यक्ति का जीवन दुराचारी एवं पापों का संकुल बन जाता है, अतः व्यक्ति को धर्म के संस्कारों से संस्कारित करने के उद्देश्य से ही यह संस्कार किया जाता है - ऐसा हम मान सकते हैं। वर्धमानसूरि ने इस संबंध में अपना मंतव्य स्पष्ट करते हुए कहा है कि २० "इस लोक में गर्भ से लेकर विवाह तक के चौदह संस्कारों से संस्कारित व्यक्ति भी व्रतारोपण-संस्कार के बिना इस जन्म में लक्ष्मी का सदुपयोग नहीं कर पाता है। वह जगत में प्रशंसा का पात्र नहीं होता है। वह न तो इस लोक में और न ही परलोक में स्व-पर कल्याण का भागी होता है। वह आर्यदेश, मनुष्यजन्म तथा स्वर्ग एवं मोक्ष के सुख से भी वंचित रहता है।" अतः मनुष्यों के लिए व्रतारोपण-संस्कार परम कल्याणकारक है। आगम में भी इसके महत्व को प्रदर्शित करते हुए कहा गया है - "ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र - कोई भी हो, सभी धर्म से ही मोक्ष की प्राप्ति के योग्य होते हैं। सर्व कलाओं में प्रवीण जो मुनष्य धर्मकला को नहीं जानते हैं, वे बहत्तर कलाओं में कशल एवं विवेकशील होने पर भी (वास्तव में) कुशल नहीं हैं।" अन्य धर्मों में भी कहा गया है - "धर्माचरण के बिना उपनीत, पूज्य तथा कलावान् मनुष्य भी न तो इस लोक में और न परलोक में सुख को प्राप्त कर पाता है।४२ वर्धमानसरि ने यह संस्कार कब किया जाना चाहिए, अर्थात इस संस्कार को करते समय व्यक्ति की आयु कितनी हो, इसका उल्लेख नहीं किया है, परन्तु इस सम्बन्ध में व्यक्ति की योग्यता को अत्यन्त महत्व दिया है। दिगम्बर-परम्परा में यह संस्कार व्रतावतरण नामक संस्कार के रूप में विवेचित किया गया है। दिगम्बर-परम्परा में यह संस्कार बारह या सोलह वर्ष के बाद में किया जाता है।४२२ वैदिक-परम्परा के ग्रन्थों में भी वेदव्रतों का उल्लेख मिलता है, ४२० आचारदिनकर वर्धमानसूरिकृत (प्रथम विभाग), उदय-पन्द्रहवाँ, पृ.-४२, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, सन् १६२२ ४' आचारदिनकर वर्धमानसूरिकृत (प्रथम विभाग), उदय-पन्द्रहवाँ, पृ.-४२, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे सन् १६२२ आदिपुराण, जिनसेनाचार्यकृत, अनु. डॉ पन्नालाल जैन, पर्व-अड़तीसवाँ, पृ.-२५०, भारतीय ज्ञानपीठ, सातवाँ संस्करण : २००० ४२२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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