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________________ वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन वर्धमानसूरि ने आचारदिनकर में इसकी निम्न विधि प्रस्तुत की है। विवाह संस्कार इस विधि में वर्धमानसूरि ने सर्वप्रथम यह बताया है कि जिनका शील एवं कुल एक समान हो, उनमें ही मैत्री एवं विवाह सम्बन्ध करने चाहिए। तत्पश्चात् मूलग्रन्थ में कन्या के विकृत कुल, विकृत कन्या एवं कन्यादान हेतु वर के विकृत कुलों का उल्लेख हुआ है। कदाचित् दोनों का विकृत कुल हो, तो पाँच शुद्धियों को देखकर ही विवाह करना चाहिए। तत्पश्चात् यह बताया गया है कि गर्भ से आठवें वर्ष बाद कन्या का विवाह कर देना चाहिए। उससे ऊपर की उम्र वाली कन्या राका कहलाती है और उसका विवाह यथाशीघ्र ही कर देना चाहिए । पुरुष का विवाह आठ वर्ष से लेकर अस्सी वर्ष तक कभी भी हो सकता है, किन्तु उसके बाद नहीं। 191 तत्पश्चात् विवाह के प्रकारों का उल्लेख करते हुए ब्रह्म, प्राजापत्य, आर्ष एवं दैव विवाह को धर्माधारित तथा गान्धर्व, आसुर, राक्षस एवं पैशाच विवाह को पापविवाह कहा है। मूलग्रन्थ में सर्वप्रथम ब्रह्मविवाह की विधि बताई गई है। इसके लिए शुभदिन, शुभ लग्न में गुणयुक्त वर को बुलाकर उसे स्नान करवाकर अलंकृत करें एवं अलंकृत कन्या दें। तत्पश्चात् मंत्रपूर्वक वस्त्रांचल - बन्धन कर - दंपत्ति अपने घर जाते हैं। यह ब्रह्मविवाह की विधि है । तदनन्तर यह बताया गया है कि आर्षविवाह में वन में रहने वाले गृहस्थ मुनि अपनी पुत्री को अन्य ऋषि को गाय और बैल के दान के साथ देते हैं। इस विवाह का वेदमंत्र जैनशास्त्रों में नहीं है, क्योंकि जैन इसे अकृत्य मानते हैं। देव - विवाह में पिता यज्ञादि कर्मों की पूर्ति के लिए पुरोहित को अपनी कन्या दक्षिणावत् देते हैं। तदनन्तर गान्धर्व - विवाह, आसुर विवाह, राक्षस-विवाह एवं पैशाचिक - विवाह की व्याख्या की गई है। इसके बाद प्रजापति - विवाह की विधि का उल्लेख हुआ है। मूलग्रन्थ में सर्वप्रथम प्राजापति - विवाह हेतु शुभ नक्षत्र, तिथि, वार, लग्न आदि की विस्तृत चर्चा की गई है। तदनन्तर कन्यादान की विधि बताई गई है। सर्वप्रथम वरपक्ष समान कुल एवं शील से युक्त अन्य गोत्र की कन्या की याचना करे। तत्पश्चात् कन्यापक्ष के कुल के ज्येष्ठ व्यक्ति वरपक्ष के कुल के ज्येष्ठ व्यक्ति को नारियल आदि के दान से मंत्रपूर्वक कन्यादान करें। तत्पश्चात् कन्यापक्ष के लोग सब को ताम्बूल दें। तदनन्तर वरपक्ष एवं कन्यापक्ष के लोग परस्पर वर, कन्या हेतु वस्त्र - आभरण आदि दें। उसके बाद लग्नदिन से पहले मास या पक्ष में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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