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________________ वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन 189 इस प्रकार यह संस्कार व्यक्ति के जीवन में शिक्षा की अनिवार्यता को स्पष्ट कर देता है। विवाह-संस्कार विवाह-संस्कार का स्वरूप - विवाह केवल दो शरीरों का मिलन नहीं, वरन् दो आत्माओं का पवित्र मिलन है। इसके द्वारा दो प्राणी अपने अलग अस्तित्व को समाप्त कर एक सम्मिलित इकाई का निर्माण करते हैं। कहा जाता है कि स्त्री-पुरुष एक-दूसरे के पूरक हैं, विवाह-संस्कार के बिना वे अपूर्ण रहते हैं, इसीलिए विवाह को सामान्यतया मानव-जीवन की एक आवश्यकता माना गया है। विवाह को स्त्री-पुरुष सम्मिलन की एक घटना की जगह एक धार्मिक क्रिया के रूप में परिवर्तित कर ऋषि, महर्षियों ने इसे संस्कार के रूप में स्वीकार किया है। व्यक्ति के लिए सामान्यतः चार आश्रमों की व्यवस्था की गई है, जिसमें से द्वितीय गृहस्थाश्रम की व्यवस्था विवाह-संस्कार पर ही आधारित है। इसके द्वारा ही व्यक्ति गृहस्थ-जीवन में प्रवेश कर गृहस्थाश्रम के दायित्वों का निर्वाह करता है। इस प्रकार विवाह गृहस्थ-जीवन की आधारशिला है, जो स्त्री-पुरुष के न केवल शारीरिक सम्बन्ध पर, अपितु आत्मीय सम्बन्धों पर आधारित है। इस संस्कार को करने का मूलभूत प्रयोजन क्या था, जब हम इस प्रश्न पर विचार करते हैं, तो यह पाते हैं कि समाज की व्यवस्था को सुन्दर एवं सुव्यवस्थित करने हेतु विवाह अत्यन्त अनिवार्य संस्कार है। इसके अभाव में स्वस्थ समाज की कल्पना ही असम्भव है। जिस प्रकार आजीविका की समुचित व्यवस्था किए बिना समाज में स्थिरता नहीं आती, उसी प्रकार स्त्रियों और पुरुषों के सम्बन्धों का समुचित रूप से निर्धारण किए बिना, अर्थात् विवाह के पवित्र संस्कार के बिना स्वस्थ एवं सदाचारी समाज का निर्माण होना असम्भव है। अतः सुसभ्य समाज के लिए विवाह-संस्कार अत्यन्त महत्वपूर्ण है और इसके इसी महत्व को दृष्टि में लेकर ही यह संस्कार किया जाता रहा है। हिन्दू-परम्परा के स्मृति ग्रन्थों में तो पुरुष को अनिवार्य रूप से विवाह करने का निर्देश दिया गया है, क्योंकि इसके अभाव में वह अपत्नीक पुरुष अयज्ञीय कहलाता है, जो उसके लिए अत्यन्त निन्दासूचक शब्द माना जाता रहा है।२६६ विवाह के अभाव में उसे धार्मिक हिन्दूसंस्कार, डॉ. राजबली पाण्डेय, अध्याय-अष्टम, पृ.-१६५, चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी, पांचवाँ संस्करण : १६६५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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