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________________ 186 साध्वी मोक्षरला श्री वारों एवं तिथियों में करना चाहिए तथा किन-किन नक्षत्रों, तिथियों एवं वारों में नहीं करना चाहिए। इस प्रकार वर्धमानसूरि ने इसके मुहूर्त के सम्बन्ध में विधि और निषेध - दोनों दृष्टि से विचार किया है। दिगम्बर-परम्परा में पं. नाथूलाल शास्त्री की “जैन-संस्कार-विधि" में इस संस्कार को करने के लिए ज्योतिष सम्बन्धी उल्लेख मिलते हैं। वैदिक-परम्परा में श्वेताम्बर-परम्परा की भाँति नक्षत्रों आदि का तो उल्लेख नहीं है, परन्तु यह उल्लेख अवश्य मिलता है कि - कार्तिक शुक्लपक्ष के बारहवें दिन से आषाढ़ शुक्लपक्ष के ग्यारहवें दिन तक, किन्तु प्रतिपदा, षष्ठी, अमावस्या, रिक्ता तिथियों एवं मंगलवार तथा शनिवार का त्याग करके यह संस्कार करना चाहिए।२८६ ।। श्वेताम्बर-परम्परा में वर्धमानसरि के अनुसार उपनयन-संस्कार के समान शुभदिन एवं शुभलग्न होने पर यह संस्कार किया जाता है। दिगम्बर-परम्परा में यह संस्कार पाँचवें वर्ष में करने का विधान है। वैदिक-परम्परा में भी विश्वमित्र के अनुसार यह संस्कार बालक की आयु के पाँचवें वर्ष में करने का विधान है। पं. भीमसेन शर्मा द्वारा लिखित षोडश-संस्कार-विधि में यह उल्लेख है कि एक अज्ञातनामा स्मृतिकार के अनुसार यह संस्कार बालक के पाँचवें या सातवें वर्ष में किया जाना चाहिए। यदि किन्ही अनिवार्य परिस्थितियों के कारण इसे स्थगित करना पड़े, तो उपनयन-संस्कार के पूर्व किसी समय इसका किया जाना आवश्यक है। इस प्रकार नियत समय के सम्बन्ध में वैदिक-परम्परा में मतान्तर हैं। ___ इस संस्कार के प्रारंभ में वर्धमानसूरि ने उपवीत व्यक्ति के घर में पौष्टिककर्म करने का निर्देश दिया है। उसके बाद गृहस्थ गुरु देवालय में, उपाश्रय में, या कदंब-वृक्ष के नीचे कुश के आसन पर बैठकर अपने वामपार्श्व में कुश के आसन पर उस उपनीत बालक को बैठाते हैं और उसके दाहिने कान को पूंजकर तीन बार सारस्वतमंत्र३६२ पढ़ते हैं। दिगम्बर-परम्परा में एवं वैदिक-परम्परा में इस प्रकार की क्रियाविधि का उल्लेख नहीं मिलता है। वैदिक-परम्परा में सर्वप्रथम २८८ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत (प्रथम विभाग), उदय-तेरहवाँ, पृ.-३०, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे सन् १६२२ ३८६ देखे - धर्मशास्त्र का इतिहास (भाग-प्रथम), पांडुरंग वामन काणे, अध्याय-६, पृ.-२०६, उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ, तृतीय संस्करण : १६८० ३६० देखे - हिन्दू संस्कार, डॉ. राजबली पाण्डेय, अध्याय-७ (द्वितीय परिच्छेद), पृ.-१४०, चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी, पांचवाँ संस्करण : १६६५ २६१ देखे - हिन्दू संस्कार, डॉ. राजबली पाण्डेय, अध्याय-७ (द्वितीय परिच्छेद), प्र.-१४०, चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी, पांचवाँ संस्करण : १६६५ र आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत (प्रथम विभाग), उदय-तेरहवाँ, पृ.-३०, निर्णयसागर मुद्रालय, बॉम्बे, सन् ૧૬૨૨ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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