SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 18
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ साध्वी मोक्षरत्ना श्री कृतज्ञता-ज्ञापन : सर्वप्रथम मैं अहिंसा एवं वैराग्य-मार्ग के उपदेष्टा परम पावन तीर्थंकर परमात्मा के चरणों में हृदय की अनन्य आस्था के साथ वन्दना अर्पित करती हूँ। तदनन्तर उनके जिनशासन को जीवन्त बनाए रखने वाले गौतमस्वामी, सुधर्मा स्वामी एवं युगप्रभावक चारों दादा गुरुदेवों के प्रति सर्वतोभावेन नतमस्तक हूँ। मेरी इस अध्ययनयात्रा में प्रातःस्मरणीय खरतरगच्छ नभोमणि गणनायक प. पू. सुखसागरजी म. सा. का दिव्य आशीर्वाद एवं मंगल-कृपा सदैव रही है। शोधग्रन्थ-प्रस्तुति की वेला में उन्हें मैं असीम आस्था के साथ अभिवंदन करती हूँ। इस शोधप्रबन्ध की निर्विघ्न सम्पन्नता में कहीं-न-कहीं, छत्तीसगढ़शिरोमणि खरतरगच्छाधिपति प.पू. स्व. जिनमहोदयसागरसूरिश्वरजी म.सा., आत्मसाधिका, समतामूर्ति, जैनकोकिला प. पू. प्र. महोदया स्व. श्री विचक्षणश्रीजी म. सा. एवं आगमरश्मि, गुर्जरज्योति प. पू. प्र. महोदया स्व. श्री तिलकश्रीजी म. सा. का दिव्याशीष भी रहा है। इस ग्रन्थ की पूर्णाहुति की पावन वेला में उनके चरणों में भी सादर सविनय नतमस्तक हूँ। मधुरभाषी परमपूज्य श्री पीयूषसागरजी म. सा. के पावन चरणों में मेरा श्रद्धाभिसिक्त वन्दन। यह शोधप्रबन्ध उन्हीं की प्रेरणा की फलश्रुति है। मैं जब भी आपश्री से मिली, तब-तब मुझे ज्ञानार्जन हेतु आपकी प्रेरणा का संबल मिला। हमेशा आपश्री का यही आग्रह रहा कि जीवन में हमेशा ज्ञानार्जन करते रहना, कभी भी इसमें प्रमाद मत करना। आपश्री की प्रबल प्रेरणा से ही मुझमें उत्साह जाग्रत हुआ और उसी के फलस्वरूप मैंने यह शोधकार्य करने का निश्चय किया। ग्रन्थ की पूर्णाहुति के इन क्षणों में विचक्षणमण्डल की सभी गुरुभगिनियों के प्रति भी सहृदय आभार प्रदर्शित करती हूँ, जिन्होंने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से मुझे ज्ञानार्जन करने हेतु प्रेरित किया। मेरे इस संयमी-जीवन की प्रणेता परम सम्माननीया गुरुवर्या प. पू. श्री हर्षयशाश्रीजी म. सा. के शुभाशीर्वाद और विद्वज्जनों की शुभकामनाओं का ही सुपरिणाम मानती हूँ कि मेरा यह शोधकार्य निर्विघ्न रूप से सम्पन्न हुआ। परमश्रद्धेय गुरुवर्या तो मेरे जीवन में सर्वस्व हैं, उन्हें मैं क्या साधुवाद दूँ? उनके प्रति मैं क्या कृतज्ञता ज्ञापित करूं? मुझमें जो कुछ भी है, उन्हीं की तो देन है, अगर वे मुझे अध्ययन से जुड़े रहने की निरन्तर प्रेरणा नहीं देती, तो सम्भवतः यह यात्रा अधूरी ही रह जाती। वे मेरे लिए दीपक के समान हैं, जिन्होंने स्वयं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy