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________________ वर्थमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन 161 पाचनशक्ति भी कमजोर बनी रहेगी, अतः शिशु की पाचनशक्ति का क्षय न हो, इसलिए माता का यह कर्तव्य है कि वह उसे धीरे-धीरे ठोस आहार कराए। वर्धमानसूरि की यह विशेषता है कि उन्होंने अन्य संस्कारों की भाँति इस संस्कार में कुलदेवी-देवताओं के नैवेद्य आदि का भी निर्देश आचारदिनकर में किया है, जो अपनी कुल-परम्परा को अक्षुण्ण रखने हेतु आवश्यक था। उपर्युक्त सभी दृष्टिकोणों पर जब हम विचार करते हैं, तो इस संस्कार का प्रयोजन एवं इस संस्कार की जीवन में उपादेयता स्वतः ही प्रकट हो जाती है। मनुष्य का जीवन आहार पर ही आश्रित है, उसके बिना व्यक्ति का शारीरिक-विकास सम्भव नहीं है, क्योंकि आहार ही शरीर को शक्ति एवं संबल प्रदान करता है, इसलिए शिशु के शारीरिक-विकास के लिए यह संस्कार अत्यन्त महत्वपूर्ण है। कर्णवेध-संस्कार कर्णवेध-संस्कार का स्वरूप - इस संस्कार में शिशु का कर्णछेदन कर विधि-विधानपूर्वक कर्ण-आभूषण पहनाया जाता है। आभूषण पहनाने के लिए शरीर के विभिन्न अंगों के छेदन की प्रथा सम्पूर्ण संसार की आदिम जातियों में प्रचलित रही है। इस संस्कार का उद्भव अतिप्राचीनकाल से ही हुआ होगा, क्योंकि इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं, जैसे - सूर्यदेवता द्वारा कर्ण को कुंडल देना आदि। यह इस बात को स्पष्ट करता है कि उस काल में भी यह कर्णवेध-संस्कार प्रचलित रहा होगा। यद्यपि प्राचीन ग्रन्थों में इसकी विधि आदि नहीं मिलती, तथापि कर्ण-आभरण पहनने के उल्लेखों से कर्णवेध सम्बन्धी इस संस्कार की पुष्टि होती है। इस संस्कार को किए जाने का मूलभूत प्रयोजन क्या रहा होगा, इस सम्बन्ध में जब हम विचार करते हैं, तो निष्कर्ष रूप में यह पाते हैं कि प्राचीनकाल में भी इस संस्कार का प्रारम्भ कानों के आभूषण पहनाने के लिए ही हुआ होगा, किन्तु आगे चलकर इसे धार्मिक संस्कार का रूप दे दिया होगा। वैदिक-परम्परा के प्राचीन साहित्य में विशेष रूप से गृह्यसूत्रों में इसके विधि-विधान का कोई उल्लेख नहीं मिलता है, जो इस बात का द्योतक है कि अतिप्राचीनकाल में मात्र यह एक प्रथा थी, लेकिन इसकी उपयोगिता सिद्ध होने पर परवर्ती साहित्य में इसे संस्कार के रूप में माना गया। एक्यूपंचर की चिकित्सा-विधि के अनुसार कर्णछेदन से रोगों का यथासम्भव निरोध होने की शक्यता रहती है। इस महत्वपूर्ण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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