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साध्वी मोक्षरत्ना श्री
जाता है। कितने ही संस्कार सम्बन्धी विधि-विधान ऐसे भी हैं, जो मात्र एक ही परम्परा से सम्बन्ध रखते हैं, जैसे- वैदिक-परम्परा के बृहदारण्यकोपनिषद् के अनुसार२८ "पुत्र को सर्वप्रथम विमलीकृत मक्खन चटाना"- इस क्रिया का विवेचन जैन-परम्परा की दोनों शाखाओं में कहीं भी नहीं मिलता है, क्योंकि जैन-परम्परा में मक्खन को अभक्ष्य माना गया है और इसी कारण इस क्रिया का उल्लेख वर्धमानसूरि एवं जिनसेनाचार्य ने क्रमशः अपने ग्रन्थों आचारदिनकर एवं आदिपुराण में नहीं किया है। दिगम्बर-परम्परा के अन्य ग्रन्थ उपासकाध्ययनांग में इस संस्कार का विवेचन बहुत विस्तार से मिलता है।
श्वेताम्बर-परम्परा के आचारदिनकर नामक इस ग्रन्थ में जन्म-संस्कार की विधि दिगम्बर-परम्परा एवं वैदिक-परम्परा की अपेक्षा सरल होने के साथ ही संक्षिप्त भी है। वास्तव में, यह विधि प्रसूता एवं नवजात शिशु हेतु बहुत सुविधाजनक भी है। वैदिक-परम्परा में इस संस्कार की विधि श्वेताम्बर एवं दिगम्बर-परम्परा की अपेक्षा बहुत विस्तृत और जटिल है, जो प्रसूता एवं नवजात शिश हेतु अधिक सुविधाजनक नहीं है। यही कारण है कि वर्तमान में हिन्दू-धर्म में उन विधि-विधानों में से कुछ ही प्रचलन में हैं, शेष लुप्त हो गए हैं। उपसंहार -
इस तुलनात्मक-विवेचन के पश्चात् जब हम इस संस्कार की उपादेयता, आवश्यकता एवं प्रयोजन को लेकर समीक्षात्मक दृष्टि से विचार करते हैं, तो हम पाते हैं कि अतिप्राचीनकाल में अपनी पत्नी के सहवास का सुखोपभोग करने वाले पुरुष के लिए इस कठिन समय में स्त्री तथा शिशु के जीवन की रक्षा करना आवश्यक था। इस हेतु जन्म सम्बन्धी विधि-विधान किए जाते थे। पत्नी की इस प्रसवकालीन तीव्र वेदना को देखकर पति का हृदय स्वभावतः ही विचलित हो जाता था। वह उसे इस पीड़ा से यथाशीघ्र मुक्त करने के लिए व्यग्र बन जाता था और इस प्रसव-वेदना को सरल एवं सहय कर देने के लिए देवताओं और अभिचारकों की शुभेच्छा के लिए प्रार्थना की जाती थी - इस बात की पुष्टि अथर्ववेद में भी मिलती है।
इस प्रकार जन्म-संस्कार का मूलभूत हेतु प्रसववेदना को सह्य बनाना था, जो कालान्तर में माता एवं शिशु की रक्षा तथा अशुचि की शुद्धि के साथ संयुक्त हो गईं गर्मिणी स्त्री के प्रसव के पश्चात् स्नान, आदि द्वारा शुद्धि कराना,
२३८ देखे - धर्मशास्त्र का इतिहास (प्रथम भाग), पांडुरंग वामन काणे, अध्याय-६, पृ.-१६५, उत्तरप्रदेश हिन्दी
संस्थान, लखनऊ, तृतीय संस्करण : १६८० ।
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