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________________ वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर में प्रतिपादित संस्कारों का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक अध्ययन 119 सूचक पुंसवनकर्म करना चाहिए। ज्योतिषानुसार यह संस्कार कब किया जाना चाहिए, इसका भी वर्धमानसूरि ने इसमें उल्लेख किया है। गृहस्थ-गुरु के वेश को धारण किए हुए विधिकारक-गुरु सुसज्जित गर्भवती स्त्री को रात्रि के चतुर्थ प्रहर में जिस समय गगन में तारें हों, उस समय श्रृंगारित सधवा स्त्रियों द्वारा मंगलगान गाते हुए तेलमर्दन और उबटन लगवाकर जल से स्नान करवाए। तदनन्तर प्रभात होने पर भव्य वस्त्राभूषणों से सुसज्जित उस गर्भिणी स्त्री की उपस्थिति में स्वजन, सम्बन्धी या विधिकारक-गुरु स्वयं गृहचैत्य में स्थित जिनबिम्ब को पंचामृत से बृहत्स्नात्र-विधिपूर्वक स्नान कराए। तत्पश्चात् जिनप्रतिमा को सहस्त्रमूल एवं समस्त तीर्थजल से स्नान कराए तथा उस स्नात्रजल को शुभ पात्र में संचित करे। तदनन्तर गृहस्थ-गुरु पति या देवर आदि जनों की साक्षी में शुभ-आसन पर स्थित गर्भिणी स्त्री के सिर, स्तन एवं उदर को विधिपूर्वक वेदमंत्रोच्चारपूर्वक स्नात्रजल से आठ बार अभिसिंचित करे। तत्पश्चात् गर्भवती स्त्री आसन से उठकर सर्वजाति के आठ फल तथा सोने-चाँदी की आठ मुद्राएँ, प्रणाम करके जिनप्रतिमा के सम्मुख रखे। तदनन्तर विधिकारक गुरु को दान-दक्षिणा दे। उसके बाद उपाश्रय में जाकर साधुओं को वन्दन करे, यथाशक्ति दान दे। तत्पश्चात् अपने से आयुष्य में बड़े लोगों को नमस्कार करके कुलाचार के अनुसार कुलदेवता, आदि की पूजा करे। अन्त में इस संस्कार से सम्बन्धित सामग्रियों का भी उल्लेख हुआ है। इस विधि की विस्तृत जानकारी हेतु मेरे द्वारा किए गए आचारदिनकर के अनुवाद को देखा जा सकता है। तुलनात्मक-विवेचन - पुंसवन नामक संस्कार को लेकर जैन-परम्परा एवं वैदिक-परम्परा की अपनी-अपनी अवधारणाएँ हैं। इसी प्रकार पुंसवन-संस्कार की विधि एवं समय को लेकर भी दोनों का अपना-अपना मंतव्य है। श्वेताम्बर-परम्परा में वर्धमानसूरिकृत आचारदिनकर२०४ के अनुसार यह संस्कार गर्भधारण से आठवें माह पश्चात् करने का विधान है, अर्थात् गर्भ के पूर्ण विकसित होने पर ही यह संस्कार किया जाता है। दिगम्बर-परम्परा में इस नाम का कोई संस्कार उल्लेखित नहीं है, परन्तु उस परम्परा के सुप्रीति-संस्कार२०५ को २०४ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत (प्रथम भाग), उदय-द्वितीय, पृ.-८, निर्णयसागर मुद्रालय बॉम्बे, सन् १६२२ 'आदिपुराण, श्री जिनसेनाचार्यकृत (द्वितीय भाग), अनुवादक - डॉ. पन्नालाल जैन, पर्व-अड़तीसवाँ, पृ.- २४६, भारतीय ज्ञानपीठ, सातवाँ संस्करणः २००० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001671
Book TitleJain Sanskar Evam Vidhi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMokshratnashreejiji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2007
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, Vidhi, & Culture
File Size24 MB
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