________________
112
साध्वी मोक्षरत्ना श्री
उपरान्त सोलह रात्रियाँ इस संस्कार के योग्य हैं, जबकि लघुआश्वलायन' के अनुसार रक्त के प्रथम प्रकटीकरण के चौथे दिन के उपरान्त ही गर्भाधान-संस्कार करना चाहिए। स्मृतिचंद्रिका में कहा गया है कि प्रवाह की पूर्ण समाप्ति पर चतुर्थ दिवस इस संस्कार-विधि हेतु उपयुक्त है।
___ इस प्रकार श्वेताम्बर-परम्परा के आचार्य वर्धमानसूरि के अनुसार यह संस्कार गर्भधारण के पांच मास पूर्ण होने पर किया जाता है, जबकि दिगम्बर-परम्परा एवं वैदिक-परम्परा के अनुसार यह संस्कार गर्भधारण के उद्देश्य से गर्भाधान के योग्य समय में किया जाता है। पुनः, गर्भाधान के योग्य समय के सम्बन्ध में अनेक विचारधाराएँ दृष्टिगोचर होती हैं। वैदिक-परम्परा के आपस्तम्ब गृह्यसूत्र, मनुस्मृति २ एवं याज्ञवल्क्यस्मृति में एवं वैखानस-सूत्रों में इस सम्बन्ध में एक विशेष बात का उल्लेख मिलता है, वह यह है कि - मासिक धर्म के चौथे दिन के उपरान्त सम दिनों में लड़के की उत्पत्ति हेतु तथा विषम दिनों में लड़की की उत्पत्ति हेतु संभोग करना चाहिए। दिगम्बर-परम्परा में आर्यिका सुपार्श्वमतिजी ने सागारधर्मामृत के अनुवाद में आयुर्वेदग्रन्थ अष्टांगहृदय का आलम्बन लेते हुए इस बात का उल्लेख किया है कि सम रात्रियों में समागम करने से पुत्र एवं विषम रात्रियों में समागम करने से पुत्री की प्राप्ति होती है।८४ गर्भाधान के योग्य समय के सम्बन्ध में निवृत्तिप्रधान जैन-परम्परा के ग्रन्थों में कोई उल्लेख नहीं मिलता है।
श्वेताम्बर-परम्परा में यह संस्कार शुभ नक्षत्र, वार एवं तिथि में किया जाने का उल्लेख मिलता है। “आचारदिनकर"८५ के अनुसार श्रवण, हस्त, पुनर्वसु, मूल, पुष्य और मृगशीर्ष नक्षत्र में, रविवार, सोमवार, बुधवार, आदि शुभ वारों एवं शुभ तिथियों में यह संस्कार किया जाना चाहिए। दिगम्बर-परम्परा के प्राचीन ग्रन्थों में इस विषय में अलग से कोई स्पष्ट निर्देश नहीं किया गया है, किन्तु नाथूलाल शास्त्री की जैनसंस्कारविधि में ज्योतिष सम्बन्धी उल्लेख मिलता है।८६ वैदिक-परम्परा में इस विषय में कुछ जानकारी मिलती हैं, जैसे - मनु एवं याज्ञवल्क्य के अनुसार गर्भाधान हेतु अमावस्या, पूर्णमासी, अष्टमी, चतुर्दशी को छोड़ देना चाहिए। मूल एवं मघा नक्षत्र भी इस कर्म हेतु त्याज्य बताए गए हैं।
१८२
१८' धर्मशास्त्र का इतिहास, (भाग-प्रथम), पांडुरंग वामन काणे, अध्याय-६, पृ.-१८२, उत्तरप्रदेश हिन्दी संस्थान,
लखनऊ, तृतीय संस्करण : १९८०.
मनुस्मृति, सम्पादक- पं. श्रीराम शर्मा आचार्य, अध्याय-पहला, श्लोक-४५, संस्कृति संस्थान, बरेली १८३ याज्ञवल्क्यस्मृति, सम्पादक- पं. श्रीराम शर्मा आचार्य, अध्याय पहला, श्लोक-७६, संस्कृति संस्थान, बरेली ।
सागारधर्मामृत, अनु.-आ. सुपार्श्वमति, अध्याय-तृतीय, पृ.-१७६, भारतवर्षीय अनेकांत विद्वत् परिषद्। १५ आचारदिनकर, वर्धमानसूरिकृत (प्रथम खण्ड), उदय-प्रथम, पृ.-५, निर्णयसागर मुद्रालय बॉम्बे, सन् १९२२ १८६ जैनसंस्कारविधि, पं. नाथूलाल जैन, अध्याय-२, पृ.-५-६, श्री वीरनिर्वाण ग्रन्थ, प्रकाशन समिति, गोम्मटगिरी,,
इन्दौर पांचवाँ संस्करण, १६६८
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org