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स्वर-सन्धि ]
भाग १: व्याकरण
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४. सन्ध्यभाव(क) उवृत्त स्वर
व्यञ्जन के लुप्त हो जाने पर जो स्वर शेष रहता है उसे उद्धृत्त स्वर कहते हैं। उदवृत्त स्वर की किसी अन्य स्वर के साथ प्रायः सन्धि नहीं होती है। क्योंकि इस सन्ध्यभाव से लुप्त व्यञ्जन की प्रतीति होती है। जैसे-निसा+अरो -निसारो ( निशाचर: ), गन्ध+उडि = गंधउडि ( गन्धकुटिम् ), रयणी+अरोरयणीअरो ( रजनीकरः ), का+अव्वं - काअव्वं ( कर्त्तव्यम् ), मणु+अत्तं-मणुअत्तं ( मनुजत्वम् )।
[अपवाद
कहीं-कहीं सन्धि भी हो जाती है। कहीं नित्य और कहीं विकल्प से । जैसे-म+ऊरो- मोरो (मयूरः ), बि+इओ-बीओ, बिइओ (द्वितीयः ), राअ+उलं-राउलं (राजकुलम् ), कुम्भ आरो-कुम्भारो, कुम्भआरो (कुम्भकार: ), चक्क आओ-चक्काओ ( चक्रवाकः ), च+उद्दसी चोदसी (चतुर्दशी ), थ+इरो-थेरो ( स्थविरः )।] (ख) प्रकृतिमाव__सन्धि न होना ही प्रकृतिभाव ( यथास्थिति) है। इसमें उवृत्तस्वर वाले स्थल तथा उद्वृत्तस्वर से भिन्न स्थलों का सन्ध्यभाव बतलाया गया है। प्राकृत में सन्धि का निषेध अधिक पाया जाता है। निम्न परिस्थितियों में प्रायः प्रकृति-भाव होता है
(१)इ, ई, उ, असवर्ण स्वर- यथास्थिति-जाइ+अंध-जाइबंध (जात्यन्ध जन्मान्ध ), पुढवी+आउ ( देशी शब्द ) पुढवी आउ (पृथ्वी+
१. स्वरस्योवृत्त । हे० १.१.८. २. न युवर्णस्यास्वे । हे० ८. १. ६.
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