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________________ २५८ ] प्राकृत-दीपिका [ अपभ्रंश ४. एक्क कुडल्ली पं वहिं रुद्धी वहं पंचहं वि जुअं जुअ बुद्धी । हितं घरु कहि किवँ नन्दउ जेत्थु कुडुम्बरं अप्पणछंदउं ४. ॥४२२ ५. सिरि चडिआ खन्तिफलई पुणु डालई मोडन्ति । तो वि महद्द ुम सउणाहं अवराहिउ न करन्ति ||४४४५ || ४. एका कुटी पञ्चभिः रुद्धा तेषां पञ्चानामपि पृथक्-पृथक् बुद्धिः । भगिनि ! तद् गृह कथय कथं नन्दतु यत्र कुटुम्बं आत्मच्छन्दकम् ।। ५. शिरसि आरूढाः खादन्ति फलानि पुनः शाखा: मोटयन्ति । तथापि महाद्रुमाः शकुनीनामपराधितं न कुर्वन्ति ॥ ४. एक छोटी झोपड़ी ( कुटी ) हो और जिसमें पांच प्राणी रहते हों तथा वे पाँचों ही अलग-अलग बुद्धि वाले हों, तो हे बहिन ! कहो, जहाँ सभी कुटुम्ब स्वच्छन्द विचरण करता हो वह घर कैसे आनन्दमय हो सकता है ? ( यह पद्य शरीर और पञ्चेन्द्रिय पर भी घटाया जा सकता है ।) ५. पक्षीगण महावृक्षों के शिखरभाग ( उन्नंत शाखाओं - शिर ) पर बैठते हैं, उनके फलों को खाते हैं तथा शाखाओं को तोड़ते-मरोड़ते हैं फिर भी बे महावृक्ष [ सज्जन की तरह ] उन पक्षियों को अपराधी नहीं मानते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001669
Book TitlePrakrit Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages298
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size13 MB
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