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________________ .. २५४ ] प्राकृत-दीपिका [जैन शौरसेनी, पैशाची ४. सो चेव जादि मरणं जादि, ण णट्टो ण चेव उप्पण्णो। उप्पण्णो य विणट्ठो देवो मणुसु त्ति पज्जाओ।। १८ ॥ ५. एव सदो विणासो असदो जीवस्स पत्थि उप्पादो। तावदिओ जीवाणं देवो मणुसो ति गदिणामो ॥ १९ ॥ (पंशाची प्राकृत ) (१५) मुक्खपतं को लभेय्य ?' १. सुद्धाकसाय-हितपक-जित करन-कुतुम्ब-चेसटो योगी। मुक्क-कुटुम्ब-सिनेहो न वलति गन्तून मुक्ख-पतं ॥ ७ ॥ ४. स चैव याति मरण याति, न नष्टो न चैवोत्पन्नः । उत्पन्नश्च विनष्टो देवो मनुष्य इति पर्यायः ॥ ५. एवं सतो विनाशोऽसतो जीवस्य नास्त्युत्पादः । तावज्जीवानां देवो मनुष्य इति ‘गति' नाम ॥ संस्कृतच्छाया ( मोक्षपदं को लम्यते ?) . शुद्धाकषायहृदय जितकरणकुटुम्बचेष्टा योगी। मुक्तकुटम्बस्नेहो न वलते गत्वा मोक्षपदम् ॥ ४. पर्याय रूप से] वही जन्म लेता है और वही मृत्यु को प्राप्त करता है फिर भी ( जीवभाव से ) वह न तो उत्पन्न होता है और न नष्ट होता है। देव, मनुष्य ऐसी पर्यायें उत्पन्न होती हैं और विनष्ट होती हैं। ५. इस प्रकार सत् का विनाश और असत् जीव का उत्साद् नहीं है [ 'देव जन्म लेता है और मनुष्य मरता है' ऐसा जो कहा जाता है, उसका कारण है कि जीवों का देव, मनुष्य ऐसा 'गति' नामकम (देवादि गतियों में ले जाने वाला कर्मविशेष) उतने ही समय का है। - हिन्दी अनुवाद ( मोक्ष पद को कौन प्राप्त करेगा ? ) १. शुख (निर्मल ) तथा क्रोधादि कषायों से रहित हृदय वाला, इन्द्रियों (करण-कुटुम्ब ) को चेष्टाओं को जीतने वाला एवं बन्धुवर्ग ( कुटुम्ब) के १. श्रीहेमचन्द्रकृत कुमारपालचरित के सर्ग ८ से उधत । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001669
Book TitlePrakrit Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages298
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size13 MB
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