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प्राकृत-दीपिका
[प्रथम अध्याय
[विशेष विचार
१. स्वर
(क ) प्राकृत में 'ऋ, ऋ, लू, ऐ, औं' इन पाँच स्वर-वर्णों का सर्वथा अभाव है। 'अयौ वैत' हे० ८.१.१६९ से 'अयि' अव्यय को 'ऐ' विशेष प्रयोग हुआ है।
(ख ) 'ऍ' और 'ऑ' ये ह्रस्व स्वर संयुक्त व्यञ्जनों के पूर्व होते हैं । जैसे-ऍक्क, तेल्ल, सोत्त, तोत्त, खेत्त; जो व्वण, पेम्म, ओट्ट आदि । परन्तु व्यवहार में ह्रस्व स्वर बोधक चिह्न " का प्रयोग सर्वत्र नहीं मिलता है । भाषा-वैज्ञानिकों के द्वारा सम्पादित ग्रन्थों में ही ऐसे चिह्न का प्रयोग मिलता है।
(ग) प्लुत स्वर नहीं होता है । २. व्यञ्जन
(क) 'इ' और 'ज्' इनका प्रयोग सरल व्यञ्जन ( असंयुक्त व्यञ्जन या स्वरयुक्त व्यञ्जन ) के रूप में प्राय: नहीं होता है। इनका प्रयोग स्ववर्गीय वर्णों के साथ संयुक्तरूप में ही कहीं-कहीं देखा जाता है। जैसे-ङ्क, ल, ञ्च, ञ्छ आदि । अन्यथा प्रायः सर्वत्र अनुस्वार हो जाता है।
(ख) 'न्' प्रायः सर्वत्र 'ण' में बदल जाता है। हेमचन्द्राचार्य के अनुसार शब्द के आदि में स्थित 'न्' का 'ण' विकल्प से होता है। जैसे—णरो, नरो ( नरः ); णई, नई (नदी) । वस्तुतः 'न्' के प्रायः निम्न परिवर्तन दृष्टिगोचर होते हैं
(१) न् >ण में परिवर्तन । (२) अनुस्वार । (३) समानवर्गीय वर्गों के साथ 'न्' की यथास्थिति ।
(ग) सामान्य प्राकृत में वस्तुतः [ कुछ विशेष प्राकृत प्रयोगों को छोड़कर ] मूल 'य्' का अभाव है । क्योंकि वह सामान्य रूप से 'ज्' हो जाता है । सामान्य प्राकृत के प्रयोग स्थलों में जो 'य' दृष्टिगोचर होता है वह प्राय: 'य' श्रुति है अर्थात् क्, ग् आदि व्यञ्जन वर्गों के लोप होने पर यदि वहाँ 'अ' अथवा 'आ' शेष
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