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________________ २१८] प्राकृत-दीपिका [ जैन महाराष्ट्री तओ संजायनियनामासङ्कण भणियं राइणा--भयवं! चिट्ठउ ताव दारिद्ददुक्खाइयं ववसायकारणं, अह कहं पुण महारायपुत्तो गुणसेणो नाम कल्लाणमित्तो ति। अग्गिसम्मतावसेण भणियं-महासत्त! एवं कल्लाणमित्तो। सुण जे होन्ति उत्तमनरा धम्म सयमेव ते पवजन्ति । मज्झिमपयई संचोइया उ न कयाइ वि जहन्ना ।। चोएइ य जो धम्मे जीवं विविहेण केणइ नएण। संसारचा रयगयं सो नणु कल्लाण मित्तो त्ति ।। भणितं राज्ञा-भगवन ! तिष्ठतु तावद् दारिद्रयदु खादिकं व्यवसायकारणम्, अथ कथं पुनर्महाराजपुत्रो गुणसेनो नाम कल्याण मित्रम् इति ? अग्निशर्मतापसेन भणितम् ~ महासत्त्व ! एवं कल्याणमित्रम् । श्रुणु ये भवन्ति उत्तमनरा धर्म स्वयमेव ते प्रपद्यन्ते । मध्यमप्रकृतय संचोदितास्तु न कदाचिदपिजघन्याः ।। चोदयति च यो धर्मे जीवं विविधेन केनचिद् नयेन । संसार चारक गतं स ननू कल्याणमित्रमिति ॥ नामक कल्याण मित्र ( इस तपस्वी जीवन के प्रति कारण ) हैं।' इसके अनन्तर अपने नाम की आशंका से युक्त राजा ने कहा -'भगवन् ! दारिद्रय के दुःख आदि तो इस व्यवसाय के प्रति कारण हों, यह उचित है, परन्तु महाराज का गुणसेन नामक पुत्र कल्याणमित्र कसे ?' अग्निशर्मा तपस्वी ने कहा--'महा. राज ! वह इस प्रकार कल्याण मित्र है, सुनें-- __ जो उत्तम मनुष्य होते हैं वे स्वयं ही धर्म को प्राप्त करते हैं, मध्यमप्रकृति के मनुष्य दूसरों से प्रेरित होकर [ धर्म में प्रवृत्त होते हैं ] और अधम मनुष्य किसी भी तरह से [धर्म में प्रवृत्त ] नहीं होते हैं। संसाररूपी कारागार में पड़े हुए जीव को जो विविध प्रकार से अथवा किसी एक नयविशेष के द्वारा धर्म में प्रेरित करता है, वह निश्चय ही कल्याणमित्र है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001669
Book TitlePrakrit Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages298
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size13 MB
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