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________________ २१६ ] प्राकृत-दीपिका [ जैन महाराष्ट्री गेहे आहारगहणेणं । कुलवइणा भणियं -वच्छ ! एवं किंतु एगो अगिसम्मो नाम महातावसो, सोय न पइदियहं भुञ्ज, किंतु मासाओ मासांओ, तत्थ वि य पारणगदिवसे पंढमपविट्ठो पढमगेहाओ चेत्र लाभे वा अलाभे वा नियत्तइ, न गेहन्तरमुवगच्छइ । ता तं महातवस्सि मोत्तूण पडविना ते पत्थणा । राइणा भणियं - भगवं ! अणुहीओ म्हि । अह कहि पुण सो महातावतो ? पेच्छामि णं ताव, करेमि तस्स दरिसणेण अप्पाणं विगयपावं । कुलवइणा भणियं -- वच्छ ! एयाए सहयारवीहियाए हेट्ठा झांणवरगओ चिट्ठइ । परिवारपरिगतो मम गेहे आहारग्रहणेन । कुलपतिना भणितम् - वत्स ! एवम्। किन्तु एकोऽग्निशर्मा नाम महातापसः, स च न प्रतिदिवसं भुङ्क्ते, किन्तु मासाद् मासात्, तत्राऽपि च पारणक दिवसे प्रथमप्रविष्टप्रथमगेहाद् एव लाभे वालाभे वा निवर्तते, न गेहान्तरमुपगच्छति । तस्मात् तं महातपस्विनं मुक्त्वा प्रतिपन्ना तव प्रार्थना । राज्ञा भणितम् - भगवन् ! अनुगृहीतोऽस्मि । अथ कुत्र पुनः स महातापसः ? प्रेक्षेतं तावत् करोमि तस्य दर्शनेन आत्मानं विगतपापम् । कुलपतिना भणितम् - वत्स ! एतस्यां सहकार वीथिकायां अधस्ताद् ध्यानवरगतस्तिष्ठति । करके उसने कहा--' समस्त तापस परिवार के साथ मेरे घर आहार ग्रहण करके मुझे अनुगृहीत कीजिए ।' कुलपति ने कहा- 'पुत्र ! ऐसा ही हो । किन्तु अग्निशर्मा नामक एक महातपस्वी है जी प्रतिदिन भोजन नहीं करता है, वह महीने महीने के बाद भोजन करता है उसमें भी वह पारणे के दिन प्रथम प्रविष्ट प्रथम घर से भिक्षा की प्राप्ति अथवा अप्राप्ति होने से वापिस आ जाता है, पुन: दूसरे घर नहीं जाता है । अतएव उस महातपस्वी को छोड़कर आपकी प्रार्थना स्वीकार है ।' राजा ने कहा- 'भगवन् ! मैं अनुगृहीत हूँ । वे महातपस्वी जी कहाँ हैं ? मैं उन्हें देखूं और उनका दर्शन करके अपने आपको पाप से रहित करूँ ।' कुलपति जी ने कहा - 'पुत्र ! इस 'आम्रवीथिका ( आम के वक्षों की पंक्ति) के नीचे ध्यान में तल्लीन हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001669
Book TitlePrakrit Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages298
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size13 MB
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