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________________ १९४] प्राकृत-दीपिका [ जैन महाराष्ट्री ४. काऊण सिरपणाम, कहेइ पवणंजयागमं सव्वं । मुद्दा य पच्चयत्थं, तह वि य न पसज्जई सासू ॥ ४ ॥ ५. भणइ तओ कित्तिमई, जो न वि नाम पि गेण्हई तुझं । सो किह दूरपवासं, गन्तूण पुणो नियत्तेइ ? ॥ ५ ॥ ६. धिद्धि ! त्ति दुट्ठसीले!, निययकुलं निम्मलं कयं मलिणं । लोगम्मि गरहणिज्ज, एरिसकम्म जणन्तीए ॥६॥ ७. एवं बहुप्पयार, उवलम्भेऊण तत्थ कित्तिमई। आणवइ कम्मकारं, नेह इमं पियहरं सिग्धं ॥ ७ ॥ ४. कृत्वा शिरः प्रणामं कथयति पवनञ्जयागमनं सर्वम् । मुद्रा च प्रत्ययार्थ तथापि च न प्रसाध्यते श्वश्रूः ।। ५. भगति ततः कीतिमती यो नापि नाममपि गृह्णाति युष्माकं । स: कथं दूर प्रवासं गत्वा पुनः निवर्तते ।। ६. धिक् ! इति दुष्टशीले ! निजकुलं निर्मलं कृतं मलिनम् । लोके गर्हणीयं ईदृशकर्म जयित्वा ॥ . ७. एवं बहुप्रकारं उपालभ्य तत्र कीर्तिमती। आज्ञा यति कर्मकारं नय इमं पितृगृहं शीघ्रम् ॥ ४. मिर से प्रणाम करके पवनंजय के आगमन का सर्व वृत्तान्त उसने कह सुनाया और साक्षी के तौर पर मुद्रिका भी दिखलाई, तथापि सास को विश्वास नहीं हुआ। ५. तब कीतिमती ने कहा कि जो तेरा नाम भी नहीं लेता था वह दूर प्रवास में जाकर कैसे वापस लौट सकता है ? ६. हे दुष्टशीले ! तुझे धिक्कार है, धिक्कार है। लोक में निन्दित ऐसा कर्म करके तूने अपना कुल कलंकित किया है। ७. इस तरह अनेक प्रकार से बुरा-भला कहकर कीर्तिमती ने नौकर को आज्ञा दी कि इसे जल्दी ही इसके मायके ले जाओ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001669
Book TitlePrakrit Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages298
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size13 MB
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