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________________ सुहासियाई ] भाग ३ : सङ्कलन ७. लहुअन्ति लहु पुरिसं पव्वअमेत्तं पि दो वि कज्जाई । णिव्वरणमणिव्वूढे णिव्वूढे जं अ णिव्वरणं ॥। ३-५५ ।। ८. कीरन्ति व्विअ मासइ उअए रेहव्व खलअणे मेत्ती । सा उण सुअणम्मि कआ अणहा पाहाणरेह व्व ।। ३७२ ।। ९. फलसंपत्तीअ समोणआइ तुरंगाई फलविपत्तीए । हिअआइ सुपुरिसाणं महातरुणं व सिहराई ॥ ३८२ ।। ७. लघयतो लघु पुरुषं पर्वतमात्रमपि द्वे अपि कार्ये । निर्वरणमनिव्यूढे निव्यूढे यच्च निर्वरणम् ॥ ८. क्रियमाणैव नश्यत्युदके रेखेव सा पुनः सुजने कृता अनघा ९. फलसंपत्या समवनतानि तुङ्गानि हृदयानि सुपुरुषाणां महातरुणामिव खलजने मंत्री | पाषाणरेखेव || फलविपत्या | शिखराणि ॥ [ १८९ ७. पर्वत के समान महान् व्यक्ति को भी दो कार्य शीघ्र ही निम्न कोटि का बना देते हैं - (१) किसी भी कार्य को बिना किए हुए ( काम करने के पहले ) ही उसको प्रकाशित करना । (२) करने के बाद ( कार्य पूरा होने के बाद) उसे प्रकट करना अर्थात् प्रशंसा करना । Jain Education International ८. दुष्ट पुरुष की मित्रता जल में खींची गयी रेखा के समान करते-करते ही नष्ट हो जाती है और वही मंत्री सज्जन के साथ करने पर पत्थर की रेखा के समान स्थिर होती है । ९. सज्जनों के हृदय विशाल तरुओं के शिखरों की भाँति फल-सम्पत्ति के आने पर नम्र हो जाते हैं और फल-विपत्ति आने पर ( फलों के नष्ट हो जाने पर, वैभव नष्ट होने पर ) अत्युच्च (उन्नत स्वाभिमान युक्त) हो जाते हैं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001669
Book TitlePrakrit Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages298
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size13 MB
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