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________________ - सुहासिमाइं] भाग ३ : सङ्कलन [ १८७ (५) सुहासियाई १. आरम्भन्तस्स धुआं लच्छी मरणं वि होइ पुरिसस्स । तं मरणमणारम्भे वि होइ लच्छी उण ण होइ ।। १.४२॥ २. तं मित्तं काअवं जं किर वसणम्मि देसआलम्मि । आलिहिअभित्तिवाउल्लअं व ण परम्मुहं ठाइ ।। ३.१७ ॥ ३. उप्पपाइअदव्वाणं वि खलाणं को भाअणं खलो च्चेअ। पक्वाइँ वि णिम्बफलाइँ णवर काएहिँ खज्जन्ति ।। ३.४८ ।। संस्कृत-छाया ( सुभाषितानि ) १. आरभमाणस्य ध्रवं लक्ष्मीर्मरणं वा भवति पुरुषस्य । तन्मरणमनारम्भेऽपि भवति लक्ष्मी: पुनर्न भवति ॥ २. तन्मित्रं कर्तव्यं यत्किल व्यसने देशकालेषु । आलिखितभित्तपुत्तलकमिव न पराङ मुखं तिष्ठति ॥ उत्पादितद्रव्याणामपि खलानां को भाजनं खल एव । पक्वान्यपि निम्बफलानि केवलं काकैः खाद्यन्ते ॥ हिन्दी अनुवाद (सुभाषित ) १. कार्य को आरम्भ करने वाले पुरुष को निश्चय ही लक्ष्मी ( सफलता) अथवा ( अधिक से अधिक ) मृत्यु की प्राप्ति होती है। मृत्यु तो कार्य न भारम्भ करने पर भी होती है, परन्तु लक्ष्मी उसे नहीं मिलती है। २. मित्र उस (व्यक्ति) को बनाना चाहिए जो किसी भी देश में, किसी भी काल में और किसी भी आपत्ति में कभी भी दीवाल पर अभिलिखित (चित्रित) पुतली के सदृश पराङ मुख न हो। ३. धन उत्पन्न करने वाले दुष्टों के दानपात्र कौन होते हैं ? दुर्जन ही। पके हए नीम के फल केवल कौओं के द्वारा खाये जाते हैं। १. सातवाहन हालकृत गाथासप्तशती से उद्धृत । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001669
Book TitlePrakrit Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages298
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size13 MB
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