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________________ पाउअकव्वमाहत्तं भाग ३ : सङ्कलन [ १७७ १३ हरिसविसेसो वियसावओ अ मउलावओ अ अच्छीण । इह बहिहुत्तो अंतोमुहो अ हिययस्स विप्फुरइ ।। ९४ ।। १४. उम्मिल्लइ लायण्णं पाययच्छायाएँ सक्कयवयाणं । सक्कय-सकारुक्करिसणेण पाययस्स वि पहावो ॥ ६५ ॥ (छ) महेश्वरसूरिकृत नाणपंचमीकहा से१५. गूढत्थदेमिरहियं सुललिय वण्णेहिं विरइयं रम्म । पाययकव्वं लोए कस्स न हिययं सुहावेइ ।। १४ ।। १३. हर्षविशेषो विकासकश्च मुकुलोकारकश्चाक्ष्णोः । इह बहिर्मुखः अन्तर्मुखश्च हृदयस्य विस्फुरति ॥ १४. उन्मीलति लावण्यं प्राकृतच्छायया संस्कृतपदानाम् । संस्कृतसंस्कारोत्कर्षणेन प्राकृतस्यापि प्रभावः ।। १५. गूढार्थदेशीरहितं सुललितवणविरचितं रम्यम् । प्राकृतकाव्यं लोके कस्य न हृदयं मुखयति ।। १३. [ प्राकृत काव्य के पढ़ने पर ] हृदय के भीतर तथा बाहर एक अपूर्व हर्ष विशेष उत्पन्न होता है जिससे दोनों आँखें एक साथ विकसित और मुद्रित होती हैं। अर्थात् नेत्रों के विकास से हृदयस्थ आनन्द बहिर्मुख होकर प्रकट होता है तथा नेत्रों के मुकुलित होने पर वह अन्तर्मुख होकर प्रकट होता है। १४. संस्कृत-वचनों का लावण्य प्राकृत-छाया से अभिव्यक्त होता है। संस्कृत भाषा के उत्कृष्ट संस्कार से प्राकृत का भी प्रभाव प्रकट होता है । १५. गूढार्थक देशी शब्दों से रहित तथा सुललित वर्गों के द्वारा रचित सुन्दर प्राकृत काव्य किसके हृदय को सुखकर नहीं है ? अर्थात् सभी को सुख देता है। १२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001669
Book TitlePrakrit Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages298
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size13 MB
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