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मेरे अभिन्न मित्र एवं पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान के निदेशक डॉ० सागरमल जैन का विशेष ऋणी हूँ जिनके सहयोग से ही प्रस्तुत पुस्तक आपके समक्ष प्रस्तुत करने में समर्थ हो सका हूँ । संस्थान के मंत्री तथा जैन विद्या के अनन्य सेवक श्री भूपेन्द्र नाथ जैन का भी बहुत आभारी हूँ जिन्होंने ग्रंथ के प्रकाशन हेतु स्वीकृति प्रदान करके आवश्यक अर्थव्यवस्था की ।
पूज्य आचार्य मुनि विद्यासागर जी एवं पूज्य जिनेन्द्रवर्णी जी के प्रति नतमस्तक हूँ जिनके आशीर्वाद से कार्य करने की क्षमता प्राप्त की। प्राकृत भाषा के मनीषीत्रय पूज्य गुरुवर्य पं० फूलचन्द जी, पं० दलसुख भाई मालवणिया जी एवं पं० जगन्मोहन लाल जी के प्रति भी नतमस्तक हूँ जिनसे प्राकृत भाषा का ज्ञान प्राप्त किया। इसके उपरान्त काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, संस्कृत विभाग के अध्यक्षद्वय प्रो० डॉ० वीरेन्द्र कुमार वर्मा तथा प्रो० डॉ० विश्वनाथ भट्टाचार्य का विशेष रूप से आभारी हूँ जिनकी प्रेरणा एवं आशीर्वाद का यह फल है। पंजाबी विश्वविद्यालय, पटियाला के संस्कृत विभागाध्यक्ष प्रो० डॉ० धर्मेन्द्र कुमार गुप्त तथा डॉ० रेवाप्रसाद द्विवेदी अध्यक्ष साहित्य विभाग, बी० ० एच० यू० के आवश्यक सुझावों के लिए बहुत आभारी हूँ ।
अभिन्न मित्र डॉ० श्रीनारायण मिश्र ( रोडर ) का मैं अत्यधिक आभारी डू जिन्होंने समय-असमय उदारहृदय से मुझे सहयोग दिया। मैं अपने प्रियं शोध छात्र श्री रविशंकर मिश्र का भी आभारी हूं जिसने प्रूफ संशोधन तथा लेखनकार्य में तत्परता के साथ सहयोग किया । लेखन कार्य में सहयोगिनी अपनी धर्मपत्नी श्रीमती मनोरमा जैन को भी धन्यवाद देता हूँ । अन्त में मुद्रक ( हिमालय प्रेस) परिवार के प्रति भी कृतज्ञ हू' जिसने मेरे द्वारा प्रूफ के समय किये गये संशोधनों को सहर्ष स्वीकार किया ।
मकर संक्रान्ति, १९८३
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सुदर्शन लाल जैन
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