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________________ विविध प्राकृत भाषायें ] [ १२३ (६) प्रथमा विभक्ति के एकवचन में महाराष्ट्रीवत् 'ओ', सप्तमी के एकवचन में अर्धमागधीवत् 'म्मि म्हि', षष्ठी और चतुर्थी के बहुवचन में सिं' तथा पञ्चमी के एकवचन में नाटकीय शौरसेनीवत् 'आदो' या विभक्ति-लोप ( लोप जैन शौरसेनी में है ) होता है । जैसे - द्रव्यस्वभावः > दव्वसहावो, एकसमये > एकसमयम्ह, एकस्मिन् > एहि, तेभ्यः > तेसि, सर्वेषाम् > सव्वेसि, नियमात् > नियमा, ज्ञानात् > णाणादो । भाग १ : व्याकरण (७) बत्वा > च्चा, ता ( कहीं कही 'य', कहीं-कहीं नाटकीय शौरसेनीवत् 'गुण' और महाराष्ट्रीवत् 'ऊण' भी पाये जाते हैं ) होते हैं । जैसे—कृत्वा > किच्चा, स्थित्वा > ठिच्चा, गृहीत्वा > गहिय गहिऊण, ज्ञात्वा > जाणित्ता जाइऊण, गत्वा > गमिऊण । (९) 'कृ' धातु के वर्तमान काल प्र०पु० एकवचन के विभिन्न रूप - कुव्वदि करेदि कुणेदि ( शौरसेनीवत् ), कुणइ करेइ ( महाराष्ट्रीवत् ) । (८) नाटकीय शौरसेनीवत् 'ति' के स्थान पर 'दि' प्रत्यय होता है । जैसे - याति > जादि, भवति > हवदि, जानाति > णादि जाणादि जाणदि, क्षीयते > यदि, उत्पद्यते उप्पज्जदि । (2) मागधी यह मगधदेश की भाषा थी । वररुचि और मार्कण्डेय ने मागधी की प्रकृति ( आधार ) शौरसेनी मानी है । शौरसेनी को इसकी प्रकृति कहने का प्रयोजन केवल व्याकरण के नियमों को समझाना है । वस्तुतः इसकी उत्पत्ति मगध देश की कथ्य भाषा से हुई है । इसके सर्वप्राचीन उदाहरण अशोक के शिलालेखों में मिलते हैं । भरतमुनि ने भी नाट्यशास्त्र ( १७५०, ५६ ) में इसका उल्लेख किया है । इसका प्रयोग संस्कृत नाटकों में निम्न श्रेणी के पात्रों के द्वारा किया गया है । भिक्षु, क्षपणक आदि भी इसका प्रयोग करते थे । अश्वधं स, भास, कालिदास आदि के नाटकों में इसके प्रयोग मिलते हैं । मागधी के शाकारी, चाण्डाली और शाबरी ये तीन रूप मिलते हैं । ढक्की ( मृच्छकटिक के जुआड़ी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001669
Book TitlePrakrit Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages298
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size13 MB
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