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________________ विविध प्राकृत भाषायें ] भाग १: व्याकरण [ १२१ स्स ण, णं ष० वीरस्स वीरस्स वीराण, णं सि, म्मि सु, सु स० वीरंसि, वीरम्मि वीरेसु, वीरेसु (१२) धात्वादेश होते हैं-दा>दे, कृ>कर, स्था >चिट्ठ, स्मृ>सुमर, दृश >पेक्ख। जैसे-ददामि >देमि, करोमि > करेमि, तिष्ठति >चिट्ठदि, स्मरति >सुमरदि, पश्यति >पेक्खदि । वर्तमानकाल के धातु-प्रत्यय 'हस' धातु के रूप एकवचन बहुवचन एकवचन बहुवचन दि, दे न्ति, न्ते, इरे प्र० पु० हसदि, हसेदे हसंति, हसंते, हसिरे, हसइरे इस्था, ध, ह म० पु० हससि,से हसित्था, हसध, हसह मो, मु, म उ० पु० हसमि, हसेमि हसमो, मु, म, हसिमो, -मु, म, हसेमो, मु, म (१३) क्त्वा इय दूण (विकल्प से, अन्यत्र 'ता') होता है । जैसे भूत्वा > भविय भोदूण भोत्ता, हविय होदूण होत्ता, पठित्वा>पढिय पढिदूण पढित्ता । परन्तु कृत्वा को 'कडुअ' और गत्वा को ‘गडुअ' आदेश विकल्प से होते हैं । अन्यत्र करिय करिदूण, गच्छिय गच्छिदूण बनेंगे। (४) जैन शौरसेनी ( प्राचीन शौरसेनी ) यह दिगम्बर जैन आगमों की भाषा है । इसमें षट्खण्डागम, समयसार, प्रवचनसार, स्वामिकात्तिकेयानुप्रेक्षा, गोम्मटसार आदि दार्शनिक ग्रन्थ लिखे गये हैं । इस पर प्राचीन अर्धमागधी का प्रभाव रहा है । यह नाटकीय शौरसेनी से प्राचीन है। नाटकीय शौरसेनी में इसकी अनेक प्रवृत्तियां पाई जाती हैं, अतः कहा जा सकता है कि जैन शौरसेनी का परिवर्तित एवं विकसित रूप नाटकीय शौरसेनी है। इसीलिये कुछ जैन विद्वान् शौरसेनी को ही प्रधान भाषा मानकर महाराष्ट्री को उसका शैलीगत एक भेद मानते हैं। जैन शोरसेनी में नाटकीय शौरसेनी और महाराष्ट्री दोनों की प्रवृत्तियाँ पाई जाती हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001669
Book TitlePrakrit Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2005
Total Pages298
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size13 MB
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