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ज्ञानाष्टकम् विषयप्रतिभासं चात्मपरिणतिमत्तथा । तत्त्वसंवेदनं चैव ज्ञानमाहुमहर्षयः ॥ १ ॥
महर्षियों ने ज्ञान तीन प्रकार का कहा है - १. विषयप्रतिभासरूप, २. आत्मपरिणतिरूप तथा ३. तत्त्वसंवेदनरूप ।। १ ॥
विषकण्टकरत्नादौ बालादिप्रतिभासवत् । विषयप्रतिभासं स्यात् तद्धेयत्वाद्यवेदकम् ॥ २ ॥
जिस प्रकार शिशु आदि अज्ञानियों को विष, कण्टक, रत्न आदि के विषय में ( उनके गुण-दोष के ज्ञान से रहित ) मात्र स्थूल ज्ञान होता है, उसी प्रकार वस्तु के हेय, ज्ञेय और उपादेय आदि गुणों के अवेदक रूप अर्थात् उन्हें समझे बिना जो मात्र संवेदनात्मक ज्ञान होता है, उस अनिश्चयात्मक ज्ञान को विषयप्रतिभास कहते हैं ॥ २ ॥
निरपेक्षप्रवृत्त्यादि लिङ्गमेतदुदाहृतम् । अज्ञानावरणापायं महापायनिबन्धनम् ॥ ३ ॥
यह विषयप्रतिभासरूप ज्ञान, निरपेक्ष ( अपेक्षारहित ), प्रवृत्तिरूपी बाह्य लक्षण वाला तथा अज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाला, महान् अपाय अर्थात् अनर्थ का कारण कहा गया है ॥ ३ ॥
पातादिपरतन्त्रस्य तदोषादावसंशयम् । __ अनर्थाद्याप्तियुक्तं चात्मपरिणतिमन्मतम् ॥ ४ ॥
पात अर्थात् अध:पतन के वशीभूत मनुष्य का उस अध:पतन के गुण-आदि से दोष आदि को जानने में संशय, विपर्यय आदि से रहित अर्थात् गुण-दोष का यथार्थ रीति से ज्ञापक तथा अनिष्ट आदि सम्यक् प्रकार से बोध करवाने वाला ज्ञान आत्मपरिणतिरूप ज्ञान कहा गया है ।। ४ ।।
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