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________________ 24 अष्टकप्रकरणम सङ्कल्पनं विशेषेण यत्रासौ दुष्ट इत्यपि । परिहारो न सम्यक् स्याद्यावदर्थिकवादिनः ॥४॥ जिस भिक्षा-पिण्ड में विशेष रूप से सङ्कल्प किया हुआ हो अर्थात् अमुक साधु-विशेष को यह पिण्ड मेरे द्वारा दिया जायगा वही पिण्ड दुष्ट या दोषयुक्त है ऐसा कहने पर भी दोष का परिहार सङ्गत नहीं है क्योंकि यावदर्थिक अर्थात् जितने भी भिक्षार्थी हैं सभी भिक्षार्थियों के निमित्त से बना हुआ पिण्ड भी त्याज्य है ।। ४ ॥ विषयो वाऽस्य वक्तव्यः पुण्यार्थ प्रकृतस्य च । असम्भवाभिधानात्स्यादाप्तस्यानाप्तताऽन्यथा ॥ ५ ॥ प्रस्तुत सन्दर्भ में यावदर्थिक और पुण्य के लिए निर्मित पिण्ड के अर्थ का स्पष्टीकरण आवश्यक है अन्यथा असङ्कल्पित पिण्ड का अभिधान असम्भव होने से आपके आप्त ( सर्वज्ञ ) की असर्वज्ञता ही सिद्ध होगी ।। ५ ॥ विभिनं देयमाश्रित्य स्वभोग्याद्यत्र वस्तुनि । संकल्पनं क्रियाकाले तद्दुष्टं विषयोऽनयोः ॥ ६ ॥ यहाँ यावदर्थिक पिण्ड और पुण्यार्थ प्रकृत पिण्ड का तात्पर्य बनाते समय स्वयं के लिए बन रही वस्तु से भिन्न देय वस्तु में दान का सङ्कल्प करने से है, अर्थात् स्वभोग्य वस्तु से भिन्न यह देय वस्तु है ऐसा उसके बनाते समय ही संकल्प किया जाय तब वह पिण्ड त्याज्य कहलाता है ॥ ६ ॥ स्वोचिते तु यदारम्भे तथा सङ्कल्पनं क्वचित् । न दुष्टं शुभभावत्वात् तच्छुद्धापरयोगवत् ॥ ७ ॥ अपने एवं अपने कुटुम्बादि के लिये योग्य पाकरूप व्यापार में जो सङ्कल्प है वह दोषयुक्त नहीं है, बल्कि वह अन्य ( साधुवन्दनादि ) शुभ व्यापार की तरह चित्त की विशुद्धता का द्योतक है ॥ ७ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001665
Book TitleAshtakprakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2000
Total Pages190
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Religion, worship, & Principle
File Size8 MB
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