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________________ अष्टकप्रकरणम् विशुद्धिश्चास्यतपसा न तु दानादिनैव यत् । तदियं इस राज्य, सम्पत्ति आदि के उपार्जन एवं भोग से उत्पन्न पाप की विशुद्धि तप ( अनशनादि ) से होती है, दानादि से नहीं। इस कारण धर्मध्यानरूपी अग्निकारिका से भिन्न द्रव्याग्निकारिका उचित नहीं है। महात्मा ( व्यास ) ने भी यही कहा है ॥ ५ ॥ 16 नान्यथा युक्ता तथा चोक्तं महात्मना ॥ ५ ॥ तस्यानीहागरीयसी । दूरादस्पर्शनं वरम् ॥ ६ ॥ धर्म के लिए जिसे धन की अभिलाषा है उसके लिए भी धन की इच्छा न करना ही श्रेयस्कर है, क्योंकि पङ्क का प्रक्षालन करने की अपेक्षा उससे दूर रहना ही श्रेष्ठ है ।। ६ ।। धर्मार्थं यस्य वित्तेहा प्रक्षालनाद्धि पङ्कस्य मोक्षाध्वसेवया चैता: प्रायः शुभतरा भुवि । जायन्ते ह्यनपायिन्य इयं सच्छास्त्रसंस्थितिः ॥ ७ ॥ सम्यक् श्रुत में यह व्यवस्था है कि मोक्षमार्ग के सेवन से पृथ्वी पर प्रायः अधिक शुभ और निर्दोष लब्धियाँ प्राप्त होती हैं ॥ ७ ॥ इष्टापूर्तं न मोक्षाङ्गं अकामस्य पुनर्योक्ता सैव Jain Education International सकामस्योपवर्णितम् । न्याय्याग्निकारिका ॥ ८ ॥ इष्टापूर्त ( यज्ञादि पुण्य कार्यों का अनुष्ठान ) मोक्ष का कारण नहीं है, क्योंकि ये सकाम कहे गये हैं। निष्काम व्यक्ति के लिये जो भावाग्निकारिका कही गयी है वही अग्नि - कारिका न्यायसम्मत है ॥ ८ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001665
Book TitleAshtakprakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2000
Total Pages190
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Religion, worship, & Principle
File Size8 MB
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