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ज्ञान और ध्यान का फल है। यह आहुति आदि से कभी सम्भव नहीं है । उक्त विषय का प्ररूपण करने वाला अष्टकप्रकरण का श्लोक तथा अपने पक्ष के समर्थन में आचार्य द्वारा शिवधर्मोत्तरपुराण के श्लोक के रूप में उद्धृत श्लोक निम्नवत् हैं -
दीक्षा मोक्षार्थमाख्याता ज्ञानध्यानफलं च स । शास्त्र उक्तो यतः सूत्रं शिवधर्मोत्तरे ह्यदः ।। ४/२ ।। पूजया विपुलं राज्यमग्निकार्येण सम्पदः । तपः पापविशुद्ध्यर्थं ज्ञानं ध्यानं च मुक्तिदम् ।। ४/३ ।।
ऐसा प्रतीत होता है कि आचार्य ने इस श्लोक की रचना, शिवपुराण में प्राप्त तद्विषयक तथ्यों के आधार पर स्वयं की है, क्योंकि यह श्लोक उक्त ग्रन्थ में उपलब्ध नहीं हो सका। यद्यपि “शिवपुराण' में 'कोटिरुद्रसंहिता' वर्ग में ४१वें अध्याय के संवर्ग १७-१९ और 'उमासंहिता' के १२वें अध्याय में इस श्लोक की विषय-वस्तु उपलब्ध है। सम्भव है हरिभद्र के समक्ष या उस काल में उपलब्ध शिवपुराण के कुछ संस्करणों में यह श्लोक रहा हो।
पुन: इसी अष्टक के छठे श्लोक में यह प्रतिपादित करने के लिए कि पहले पाप में प्रवृत्त होकर पुन: उसके प्रक्षालन हेतु दयादानादि में संलग्न होने की अपेक्षा पाप से दूर रहना ही श्रेयस्कर है; हरिभद्र ने महाभारत'', वनपर्व से इस श्लोक को ( चोक्तं महात्मना ) उद्धृत किया
धर्मार्थं यस्य वित्तेहा तस्यानीहा गरीयसी । प्रक्षालनाद्धि पङ्कस्य दूरादस्पर्शनं वरम् ।। ४/६ ।।
१३वें 'धर्मवादाष्टकम्' में हरिभद्र ने प्ररूपित किया है कि धर्मावलम्बियों को धर्म का तत्त्वत: विचार करना चाहिए, परन्तु उनके द्वारा प्रमाण के लक्षण का विचार युक्तिसङ्गत नहीं है। अपनी इस मान्यता के समर्थन में आचार्य 'न्यायावतार' की इस कारिका को उद्धृत ( तथा चाह महामति: ) करते हैं। हरिभद्र के मत का प्ररूपक श्लोक १ और महामति सिद्धसेन दिवाकर की कारिका २ निम्नवत् है -
धर्मार्थिभिः प्रमाणादेर्लक्षणं न तु युक्तिमत् । प्रयोजनाद्यभावेन तथा चाह महामतिः ।। १३/४ ।। प्रसिद्धानि प्रमाणानि व्यवहारश्च तत्कृतः । प्रमाणलक्षणस्योक्तौ ज्ञायते न प्रयोजनम् ।। १३/५ ।। For Private & Personal Use Only
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