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अष्टकप्रकरणम्
अस्वस्थस्यैव भैषज्यं स्वस्थस्य तु न दीयते । अवाप्तस्वास्थ्यकोटीनां भोगोऽन्नादेरपार्थकः ॥ ५ ॥
अस्वस्थ को ही ओषधि दी जाती है, स्वस्थ को नहीं, अत: स्वास्थ्य की पराकाष्ठा प्राप्त करने वाले के लिए अन्नादि भोग निरर्थक हैं ।। ५ ।।
अकिञ्चित्करकं ज्ञेयं मोहाभावाद्रताधपि । तेषां कण्ड्वाद्यभावेन हन्त कण्डूयनादिवत् ॥ ६ ॥
जिस प्रकार खुजली के अभाव में खुजलाना व्यर्थ है, उसी प्रकार सिद्धों में मोह का ही अभाव होने से मैथुनादि भी निष्प्रयोजन है ।। ६ ।।
अपरायत्तमौत्सुक्यरहितं निष्प्रतिक्रियम् । सुखं स्वाभाविकं तत्र नित्यं भयविवर्जितम् ॥ ७ ॥
मोक्ष सुख पूर्णत: स्वतन्त्र, औत्सुक्य अर्थात् आकांक्षा रहित, प्रतिक्रिया रहित, निर्विघ्न, स्वाभाविक, नित्य अर्थात् त्रैकालिक और भयमुक्त
परमानन्दरूपं तद्गीयतेऽन्यैर्विचक्षणैः । इत्थं सकलकल्याणरूपत्वात्साम्प्रतं ह्यदः ॥ ८ ॥
अन्य कुशल विद्वानों ने मोक्ष को परमानन्द रूप कहा है। इस प्रकार समग्रतः कल्याण रूप होने से वह साम्प्रत है ॥ ८ ॥
संवेद्यं योगिनामेतदन्येषां श्रुतिगोचरः । उपमाऽभावतो व्यक्तमभिधातुं न शक्यते ॥ ९ ॥
मात्र योगियों ( केवलियों ) को यह सुख अनुभवगम्य है, दूसरों को श्रवणगम्य है। मोक्ष-सुख की उपमा का अभाव होने से उसका स्पष्ट कथन करना सम्भव नहीं है ।। ९ ।।
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