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________________ अष्टकप्रकरणम् आत्मा का स्वभाव होने से केवलज्ञान भी अपनी उत्पत्ति के समय में ही लोकालोक प्रकाशक होता है ।। ४ ।। चैवमिष्यते । आत्मस्थमात्मधर्मत्वात्संवित्त्या गमनादेरयोगेन नान्यथा तत्त्वमस्य तु ॥ ५ ॥ वह केवलज्ञान आत्मा का धर्म होने से, स्वानुभव से आत्मा में रहते हुए ही जाना जाता है, केवलज्ञान आत्मा से बाहर नहीं जाता अन्यथा इसका केवलत्व ही नहीं रह जायगा ॥ ५ ॥ 122 यच्च चन्द्रप्रभाद्यत्र ज्ञातं तज्ज्ञातमात्रकम् । प्रभा पुद्गलरूपा यत्तद्धर्मो नोपपद्यते ॥ ६ ॥ ( शङ्का यदि केवल ज्ञान 'आत्मस्थ' ही है तो चन्द्रप्रभा से इसकी उपमा कैसे दी जाती है ? उत्तर ) जो चन्द्रप्रभा आदि से केवलज्ञान का दृष्टान्त दिया जाता है वह दृष्टान्त मात्र ही है, क्योंकि पुद्गलरूप चन्द्रप्रभा आत्मा के धर्म के रूप में घटित नहीं होती ॥ ६ ॥ अतः सर्वगताभासमप्येतन्न यदन्यथा । युज्यते तेन सन्न्यायात्संवित्त्यादोऽपि भाव्यताम् ॥ ७ ॥ चन्द्रप्रभा का प्रकाश लोकालोक में व्याप्त नहीं होता, अतः सर्वलोक प्रकाशक ज्ञान के साथ उसकी साधर्म्यता युक्तिसङ्गत नहीं, इस पर सल्लक्षण और स्वानुभूति से विचार करना युक्तिसङ्गत होगा ।। ७ ।। नाद्रव्योऽस्ति गुणा लोके न धर्मान्तौ विभुर्न च । आत्मा तद्गमनाद्यस्य नास्तु तस्माद्यथोदितम् ॥ ८ ॥ कोई भी गुण बिना द्रव्य के नहीं है, अलोक में गति -स्थिति सहायक धर्मास्तिकाय एवं अधर्मास्तिकाय नहीं है और आत्मा सर्वव्यापक नहीं है। इसलिए आत्मा के बाहर केवलज्ञान का गमनागमन नहीं, इसी कारण केवलज्ञान यहाँ जैसा कहा गया है, उसी प्रकार से है अर्थात् आत्मस्थ होकर ही सर्वलोकालोक प्रकाशक हैं ॥ ८ ॥ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001665
Book TitleAshtakprakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2000
Total Pages190
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Religion, worship, & Principle
File Size8 MB
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