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________________ 94 अष्टकप्रकरणम् अतः सर्वप्रयत्नेन मालिन्यं शासनस्य तु । प्रेक्षावता न कर्तव्यं प्रधानं पापसाधनम् ॥ ५ ॥ इसलिए बुद्धिमान को सभी प्रकार से पाप के मुख्य कारणरूप जिनशासन का मालिन्य नहीं करना चाहिए ॥ ५ ॥ अस्माच्छासनमालिन्याज्जातौ जातौ विगर्हितम् । प्रधानभावादात्मानं सदा दूरीकरोत्यलम् ॥ ६ ॥ मिथ्यात्व-बन्धन के हेतु रूप जिनशासन-मालिन्य के कारण प्रत्येक भव में विगर्हित या निन्दित व्यक्ति आत्मा के प्रधान भाव अर्थात् सम्यक्त्व से स्वयं को सदा दूर रखता है ॥ ६ ॥ कर्तव्या चोन्नतिः सत्यां शक्ताविह नियोगतः । अवन्ध्यं बीजमेषा यत्तत्त्वतः सर्वसम्पदाम् ॥ ७ ॥ जिन-शासन का मालिन्य नहीं करना, मात्र इतना ही नहीं, अपितु सामर्थ्य होने पर नियम से इस जिनशासन की उन्नति करनी चाहिए, क्योंकि शासन की प्रभावना निश्चित रूप से सब प्रकार की सम्पदा का अवन्ध्य अर्थात् फलसाधक बीज होता है ।। ७ ।। अत उन्नतिमाप्नोति जातौ जातौ हितोदयाम् । क्षयं नयति मालिन्यं नियमात्सर्ववस्तुषु ॥ ८ ॥ इस प्रकार जिनशासन की प्रभावना प्रत्येक भव में कल्याणानुबन्धी उत्कर्ष प्राप्त कराती है और जिनशासन का मालिन्य अपरिहार्य रूप से समस्त विषयों में विनाश की ओर ले जाता है ।। ८ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001665
Book TitleAshtakprakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2000
Total Pages190
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Religion, worship, & Principle
File Size8 MB
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