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________________ २२ भावविशुद्धिविचाराष्टकम् भावशुद्धिरपि ज्ञेया यैषा मार्गानुसारिणी । प्रज्ञापनाप्रियात्यर्थं न पुनः स्वाग्रहात्मिका ॥ १ ॥ जो मोक्षमार्ग का अनुसरण करने वाली है, जिसे आगम का उपदेश अत्यन्त प्रिय है और जो स्वमताग्रहशीला नहीं है, ऐसी भावशुद्धि को भी जानना चाहिए ॥ १ ॥ रागो द्वेषश्च मोहश्च भावमालिन्यहेतवः । एतदुत्कर्षतो ज्ञेयो हन्तोत्कर्षोऽस्य तत्त्वतः ॥ २ ॥ राग-द्वेष और मोह आत्मभावों के मालिन्य के हेतु हैं। वस्तुत: इन ( राग-द्वेष-मोह ) के उत्कर्ष से भाव-मालिन्य का उत्कर्ष ही समझना चाहिये ॥ २ ॥ तथोत्कृष्टे च सत्यस्मिन् शुद्धिवैशब्दमात्रकम् । स्वबुद्धिकल्पनाशिल्पनिर्मितं नार्थवद्भवेत् ॥ ३ ॥ राग-द्वेष एवं मोह का उत्कर्ष होने पर भाव में शुद्धि, अपनी बुद्धि के कल्पना रूपी कौशल से निर्मित चित्र की तरह अयथार्थ शब्द-चित्र मात्र रहेगी ।। ३ ।। न मोहोद्रिक्तताऽभावे स्वाग्रहो जायते क्वचित् । गुणवत्पारतन्त्र्यं हि तदनुत्कर्षसाधनम् ॥ ४ ॥ मोह अर्थात् राग-द्वेष की उत्कटता के अभाव में कभी भी स्वमताग्रह उत्पन्न नहीं होता है। ( सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र समन्वित ) गुणिजनों के अधीन होना ही मोहादि के ह्रास का कारण है ॥ ४ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001665
Book TitleAshtakprakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2000
Total Pages190
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Religion, worship, & Principle
File Size8 MB
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