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________________ अष्टकप्रकरणम् सदुपदेश तथा क्लिष्ट कर्म अर्थात् अशुभकर्मों के क्षय तथा प्रशस्त भावों के अनुबन्ध से होती है ॥ ४ ॥ 66 अहिंसैषा मता मुख्या स्वर्गमोक्षप्रसाधनी । एतत्संरक्षणार्थं च न्याय्यं सत्यादिपालनम् ॥ ५ ॥ अहिंसा स्वर्ग और मोक्ष की मुख्य साधनिका मानी गयी है और इसके परिवर्धन के लिए सत्यादि व्रतों का पालन भी युक्तिसङ्गत है ॥ ५ ॥ स्मरणप्रत्यभिज्ञानदेहसंस्पर्शवेदनात् अस्य नित्यादिसिद्धिश्च तथा लोकप्रसिद्धितः ।। ६ ।। स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, देहसंस्पर्शजन्य वेदना तथा लोक व्यवहार से इस आत्मा के नित्यानित्यत्व तथा शरीर से भेदाभेद की सिद्धि होती है ॥ ६ ॥ देहमात्रे च सत्यस्मिन् स्यात्सङ्कोचादिधर्मिणि । धर्मादेरूर्ध्वगत्यादि यथार्थं सर्वमेव तत् ॥ ७ ॥ धर्म से आत्मा की ऊर्ध्वगति और अधर्म से अधोगति होती है, यह मत शरीर-परिमाण रूप, सङ्कोच - विस्तार आदि गुण वाली आत्मा में वास्तविक रूप से घटित होता है, सर्वव्यापक या अनित्य आत्मा में नहीं ॥ ७ ॥ विचार्यमेतत् सद्बुद्ध्या मध्यस्थेनान्तरात्मना । प्रतिपत्तव्यमेवेति न खल्वन्यः सतां नयः ॥ ८ ॥ अतः मनुष्य को मध्यस्थ भाव से स्वबुद्धि द्वारा अहिंसा आदि का विचार कर उसे अङ्गीकार करना चाहिए। सत्पुरुषों के लिए इससे अन्य कोई युक्तिसंगत मार्ग नहीं है ॥ ८ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001665
Book TitleAshtakprakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2000
Total Pages190
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Religion, worship, & Principle
File Size8 MB
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